Thursday, November 22, 2012

मानसिक वासनायें और उनका विनाश

मानव शरीर मे इन्द्रिय सन्तुष्टि के लिये वासनाये बनती है। स्वाद की वासना जीभ से पनपती है,नाक से खुश्बू की वासना पैदा होती है मधुर और रसमय संगीत को सुनने की वासना कानो से पैदा होती है,खूबसूरत और विभिन्न प्रकार के उत्तेजक कारण देखने का मन करता है तो वासना आंखो से पैदा होनी मानी जाती है। कामोत्तेजक वासनायें सभी इन्द्रियों के चाहने पर ही पैदा होती है। पुरुष के लिये स्त्री के प्रति सम्बन्ध बनाने की और स्त्री के प्रति पुरुष के प्रति सम्बन्ध बनाने की वासना भी पैदा होती है। लेकिन कामोत्तेजक वासना के लिये सबसे पहला कारण होता है आंखो से द्रश्यों को देखना लेकिन आंखो की द्रश्यता तभी काम करती है जब भोजन मे तामसिक यानी शरीर मे बल प्रदान करने वाले तत्वो का अधिक लिया जाना हो,भोजन मे तत्वो का वर्गीकरण भी नाक से खुशबू लेकर कानो से उत्तेजक संगीत का सुनना तथा त्वचा से स्पर्श सुख का अनुभव करना आदि कारण एक साथ पनपते है तो ही माना जाता है। वासना के पैदा करने के लिये मानसिक सोच का सबसे बडा कारण भी माना जाता है। अगर वासना को पूरी तरह से सन्तुष्ट कर दिया जाये तो वासना देर तक पैदा नही होती है। उसी वासना को अगर देर तक दबाये रखा जाये तो वह वासना किसी भी हद तक पूरी करने का कारण बना रहता है। बल से बुद्धि से अर्थ से पराक्रम से वासना की पूर्ति का कारण देखा जाता है। लेकिन बल के काम आने का कारण तभी सफ़ल होता है जब बुद्धि भी काम कर रही हो और बुद्धि भी तभी सफ़ल हो पाती है जब अर्थ पास मे हो और अर्थ भी तभी काम कर सकता है जब पराक्रम यानी हिम्मत साथ दे रही हो। इन्ही कारणो की प्राप्ति के लिये लोग पहले शरीर को बनाते है फ़िर शिक्षा को पूरा करते है शरीर से बल और शिक्षा से बुद्धि की प्राप्ति होती है उसी बुद्धि के बल से अर्थ की प्राप्ति की जाती है और जब अर्थ प्राप्त हो जाता है तो अपनी हिम्मत को पैदा किया जाता है,हिम्मत के पैदा होने पर वासना की पूर्ति की जाती है।

सभी प्रकार की वासनाये मन पर निर्भर है,मन को मारकर किसी भी वासना को दबा भले दिया जाये लेकिन जब भी समय या कारण सामने होगा वासना अपने आप ही उदय हो जायेगी और वासना की पूर्ति के लिये मन अपना काम करना शुरु कर देगा। वासना के उदय होने का कोई समय नही होता है कोई उम्र नही होती है। चाकलेट खाने की चाहत बच्चे मे भी पैदा हो सकती है तो अस्सी साल के बुजुर्ग मे भी पैदा हो सकती है। यह स्वाद पर निर्भर है। वासना को एक रूप मे और भी पनपते देखा जा सकता है कि किसी भी वस्तु के नयापन मे भी मानसिक रूप वासना की पूर्ति के लिये देखा जाता है। कल अगर अरहर की दाल खाई गयी है तो दूसरे दिन अरहर की दाल की बजाय मूंग की दाल खाने का मन करेगा,अगर दूसरे दिन भी अरहर की दाल खिलाई जाये तो मानसिक इच्छा पूर्ण नही हो पायेगी।

वासना के उदय होने के लिये जो कारक सामने आते है वह इस प्रकार से है :-
  • मानसिक चाहत से
  • देखने से
  • सुनने से
  • इच्छा पूर्ति मे बाधा से
  • अधिक समय तक इच्छा को दबाये रहने से
इन पांच कारणो को शरीर के पंच भूतो से भी जोड कर देखा जाता है। शरीर की अग्नि भी उत्तेजक होने पर वासनाओ की उत्त्पत्ति का कारण माना जाता है,शरीर मे जल की अधिकता से भी वासना की उत्पत्ति का कारण बनता है शरीर मे भूमि तत्व की अधिकता से भी वासना की उत्पत्ति होती है,शरीर मे वायु की मात्रा बढने पर भी वासना की उत्पत्ति होती है और शरीर मे आकाश तत्व की अधिकता से भी निरंतर सोच से बाकी की वासनाओं मे वृद्धि का कारण देखा जाता है।
वासना की शांति के लिये निम्नलिखित उपाय किये जायें तो वासनाओ की अधिकता मे कमी आती है:-
  • ध्यान समाधि लगाने से मानसिक सोच की कल्पना का अन्त होता है.
  • मानसिक इच्छा से उत्पन्न वासना का जीभर कर उपभोग कर लेने से और मन की चाहत
    नही भी होने पर उस वासना की पूर्ति की जाती रहे.
  • उपवास से भोजन की वासना की चाहत पहले एक साल तक बढती है फ़िर भोजन की चाहत घटती जाती है.
  • स्वांस की गति को न्यंत्रित करने से सुगन्ध दुर्गन्ध की वासना समाप्त होती है.
  • एकान्त मे रहकर अपने अन्दर की आवाज सुनने अच्छा बुरा कठोर और मधुर आवाज की वासना समाप्त होती है.
  • तामसी भोजन से दूर रहना,लगातार कामोत्तेजक माहौल से दूर रहना सोते समय ईश्वर का ध्यान करना अपने जीवन साथी के अलावा अन्य को प्रकृति से जुडा देखना भोजन मे ठंडी तासीर वाले भोजन लेने से अधिक भोजन के त्याग से कामोत्तेजना मे शांति मिलती है.

Monday, November 12, 2012

लक्ष्मी मंत्र विभिन्न राशियों के लिये

संसार मे जन्म लेने वाले बुद्धिधारी जीवो मे मनुष्य का रूप सर्वोपरि है और बुद्धि से काम लेने के कारण मनुष्य को कोई भी शारीरिक शस्त्र जानवरो की तरह से पंजा नाखून सींग चीरने फ़ाडने वाले दांत आदि को प्रकृति ने प्रदान नही किया है। बुद्धि को ही मंत्र के रूप मे जगाया जाता है और जैसे ही बुद्धि काम करने लगती है मनुष्य अपने बल से यंत्रो का निर्माण करना शुरु कर देता है और बुद्धि तथा साधन प्राप्त होते ही मनुष्य जीवन मे अपने सुख साधनो के प्रयोग के लिये अपनी रक्षा के लिये भविष्य की समृद्धि के लिये रास्ते बनाने लगता है । बुद्धि को जागृत करने के लिये एक समय विशेष का चुनाव किया जाता है साधन बनाने के लिये भी एक समय विशेष का मूल्य होता है और साधन बनने के बाद उनसे अपने जीवन के कारको की प्राप्ति के लिये भी समय विशेष का कारण माना गया है। एक कहावत कही जाती है कि अस्पताल मे रोग के अनुसार जाना चाहिये,जैसे रोग तो ह्रदय रोग के रूप मे है और टीबी के अस्पताल मे जाया जाये तो रोग की पहिचान भी नही हो पायेगी जो दवा देनी है वह दवा नही मिलकर दूसरी दवाओ के लेने से रोग खत्म भी नही हो पायेगा और दूसरा रोग और पैदा होने की बात बन सकती है। उसी प्रकार से कहावत का दूसरा भाग बताया गया है कि मन्दिर मे भोग,यानी मन्दिर दुर्गा जी का है और वहां पर लड्डू का भोग लगाया जाये तो वह भोग लगेगा ही नही कारण दुर्गा के लिये तामसी भोग की जरूरत होती है और लड्डू तो केवल गणेश जी के लिये ही चढाने का प्रयोग है,उसी प्रकार से अगर हनुमान जी के मन्दिर मे तामसी भोग को चढाया जायेगा तो बजाय लाभ के नुकसान भी हो सकता है,कहावत का तीसरा भाग ज्योतिष मे योग के रूप मे समझना चाहिये,जब तक योग नही हो कोई काम करने से फ़ायदा नही हो पाता है,योग मे तीनो कारक बुद्धि साधन और साधनो से प्राप्त होने वाले लाभ मिलना लाजिमी होता है।
दीपावली को लक्ष्मी की आराधना का त्यौहार बताया जाता है। इस त्यौहार को वणिज कुल के लिये माना जाता है,चारो वर्णो मे तृतीय वर्ण वैश्य  वर्ण के लिये दीपावली का त्यौहार बताया गया है,जैसे क्षत्रिय के लिये दशहरा ब्राहमण के लिये रक्षाबन्धन वैश्य के लिये दीपावली और शूद्र वर्ण के लिये होली का त्यौहार बताया जाता है। अर्थ यानी धन सम्पत्ति का कारण आज के युग मे सभी के लिये जरूरी हो गया है और बिना अर्थ की प्राप्ति के शायद ही किसी का जीवन सही चल पाये,अगर बिना अर्थ के कोई भी जिन्दा रहना चाहता है तो वह या तो किसी गुफ़ा कन्दरा मे अपना जीवन निकाल रहा हो या वह सन्यासी बनकर मांग कर भोजन आदि का बन्दोबस्त अपने लिये कर रहा हो आदि कारण माने जा सकते है।

विभिन्न राशियों के लिये लक्ष्मी मंत्र का अलग अलग जाप बताया जाता है,कूर्म पुराण के अनुसार लक्ष्मी का रूप तीन प्रकार का माना जाता है सत के रूप मे अचल लक्ष्मी रज के रूप में चलित लक्ष्मी और तम के रूप मे झटति लक्ष्मी। इन तीनो प्रकार के लिये हर व्यक्ति के धन भाव के तीनो भावो को एक साथ जोडा गया है,और तीनो भावो के अनुसार सत से जोडी गयी लक्ष्मी दूसरे भाव से रज से जोडी गयी लक्ष्मी छठे भाव से और तम से जोडी गयी लक्ष्मी को द्सवे भाव से जोड कर देखा जाता है। प्रत्येक युग मे लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये चारो पुरुषार्थो का प्रयोग किया जाता रहा है। धर्म नाम का पुरुषार्थ मेष सिंह और धनु राशियों के लिये अर्थ नाम का पुरुषार्थ वृष कन्या और मकर राशियों के लिये काम नाम का पुरुषार्थ मिथुन तुला और कुम्भ राशियों के लिये तथा मोक्ष नामका पुरुषार्थ कर्क वृश्चिक और मीन राशियों के लिये माना जाता है।

मेष राशि शरीर से सम्बन्धित राशि है और इस राशि के लिये बुद्धि की दाता सिंह राशि तथा भाग्य की प्राप्ति के लिये धनु राशि का प्रयोग किया जाता है,इसे लक्ष्मी प्राप्त करने का कारण शरीर से बल से शरीर के प्रयोग से तकनीकी कारणो से और जमीनी रूप मे खुले में कार्य करने से शरीर के बल से ताकत से शरीर के तकनीकी प्रयोग से प्राप्त करने के लिये कहा जाता है। इस राशि वाले केवल अपनी बाहुबल की बुद्धि से ही लक्ष्मी को प्राप्त करने मे सफ़ल होते है। लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये के बात का और भी गौर करना जरूरी है कि लक्ष्य में जो चल रहा है जिसके सामने लक्ष्य है और वह अन्य स्थानो पर अपने मन को नही भटका रहा है वह ही लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है जिसका लक्ष्य नही है यानी टारगेट ही नही है वह लक्ष्मी को प्राप्त नही कर पाता है और भटकाव का रस्ता ही अपनाता रहता है आजीवन या तो गरीबी मे अपने दिन गुजार लेता है या फ़िर दूसरो के सहारे चलते हुये दरवेश के रूप मे बना रहता है। मेष राशि वालो के लिये सबसे अधिक उन्नति देने वाला और मन बुद्धि अहंकार को सही मायने मे प्रयोग मे लाने के लिये - "ऊँ ह्रां श्रां क्रां ब्रां ग्रां द्रां प्रां भ्रां स्त्रां बाहुलक्ष्मयै नम: स्वाहा" का जाप एक लाख से सवा लाख का करना श्रेष्ठ होता है। दशांश हवन के लिये जायफ़ल का हवन घी के साथ करना चाहिये,साथ मे शहद या शक्कर का प्रयोग भी कर सकते है। यह मन्त्र नाम राशि से ही फ़लदायी होता है चन्द्र राशि या जो नाम संसार मे प्रयोग मे नही लिया जाता है केवल कागजो मे या गुप्त रखा जाता है प्रयोग मे नही लेना चाहिये।

वृष राशि कालपुरुष से भी धन की राशि है और इस राशि के लिये बुद्धि की दाता कन्या राशि और भाग्य की दाता मकर राशि होती है। बुद्धि मे इस राशि वालो को सेवा वाले काम बचत वाले काम कर्जा दुश्मनी बीमारी वाले कामो से बुद्धि का जागृत होना माना जाता है और इस प्रकार की बुद्धि के लिये व्यक्ति को गूढ जानकारी जरूरी होती है वह गूढ जानकारी प्राप्त करने और अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने के लिये लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये मंत्र - "ऊँ ह्रीं श्रीं क्रीं ब्रीं ग्रीं द्रीं प्रीं भ्रीं स्त्रीं धनलक्ष्मयै नम: स्वाहा" का जाप एक लाख या सवा लाख का करना चाहिये,दशांश के हवन के लिये घी लौंग पिसी हुयी शक्कर या बूरा से करना चाहिये।

मिथुन राशि काम नाम की राशि है इस राशि के लिये बुद्धि की दाता तुला राशि तथा धर्म और भाग्य को देने वाली राशि कुम्भ होती है। इस राशि वाले जातक जितने छुपे रहेंगे उतने ही गरीब होंगे और जितने अपने को फ़ैला कर रखेंगे उतने ही अमीर होते चले जायेंगे। इस राशि वाले लोगों को बोलने से लिखने से अपने हाव भाव और फ़ैसन आदि से दिखाकर गाने बजाने अदाकारी आदि के कारणो से धन प्राप्त करने के लिये कारण बनते है लेकिन बुद्धि के लिये बेलेंस बनाने की राशि तुला का प्रयोग इन्हे करना बहुत ही जरूरी होता है और धर्म तथा भाग्य के लिये इन्हे मित्रो की तथा अपने से बडे भाई बहिनो को भी साथ लेकर चलना जरूरी होता है इस राशि वालो के लिये सबसे खतरनाक काम तथा धन से दूर जाने का कारण एक और भी माना जाता है कि अगर इस राशि के व्यक्ति किसी प्रकार से दूसरो के निजी जीवन मे झांकने की कोशिश करे या चुगली करने तथा बुराई करने की कारण पैदा करे तो यह बरबाद भी हो जाते है। इस राशि वालो के लिये लक्ष्मी प्राप्त करने का मंत्र है - "ऊँ ह्रौं श्रौं क्रौं ब्रौं ग्रौं द्रौं प्रौं भ्रौं स्त्रौं वायुलक्ष्मयै नम: स्वाहा",इस मंत्र का जाप एक लाख या सवा लाख का करना चाहिये दशांश के हवन मे अगर तगर शहद लौंग बतासे और खीर को मिलाकर करना चाहिये।

कर्क राशि मोक्ष नाम की राशि है व्यक्ति मृत्यु के बाद की गति को भोग कर नये जीवन मे कर्मगति बनाने के लिये प्रवेश करता है,इस राशि वालो को बुद्धि देने के लिये वृश्चिक राशि तथा भाग्य धर्म देने के लिये मीन राशि का फ़ेवर मे होना जरूरी होता है। बुद्धि की दाता वृश्चिक राशि इनके लिये बहुत जरूरी है अगर इस राशि के जातक वृश्चिक राशि को साथ लेकर चलने वाले होते है तो उन्हे धनी बनने से कोई रोक नही सकता है। मृत्यु के बाद की सम्पत्ति बीमा के बाद धन की प्राप्ति लोन लेकर या लोन देकर किये जाने वाले खरीद बेच करने वाले काम खनिज उत्पादनो को व्यापार मे लेकर चलने वाले काम विदेशी लोगो से प्राप्त किये गये धन और उसे प्रयोग मे लाने के काम ब्रोकर आदि के काम संस्था बनाकर किये जाने वाले काम उच्च रूप से देखे जाते है,लेकिन नीच मे रूप मे किये जाने वाले काम डर पैदा करने के बाद किये जाने वाले काम गुप्त सम्बन्ध और वासना से जुडे काम भी देखे जाते है। इस राशि वालो को लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये मंत्र - "ऊँ ह्रीं श्रीं क्रीं ब्रीं ग्रीं द्रीं प्रीं भ्रीं स्त्रीं भोगलक्ष्मयै नम: स्वाहा", इस मंत्र का दशांश हवन घी गुड अरंड की जड से करना चाहिये।

सिंह राशि धर्म नाम की राशि है और यह राशि कालपुरुष से बुद्धि की राशि मानी जाती है। इस राशि वालों के लिये धनु राशि बुद्धि को प्रदान करने वाली होती है और मेष राशि धर्म और भाग्य को पैदा करने वाली होती है इस राशि वाले व्यक्ति कानून राज्य पिता से जुडे काम समाज हित के काम विदेशी यात्रा और विदेश मे धन लगाकर किये जाने वाले इम्पोर्ट एक्सपोर्ट के काम हवाई यात्राओं वाले काम लोकहित के काम ऊंची शिक्षा (डिग्री देने) वाले काम आदि करने के बाद धन को आसानी से प्राप्त कर सकते है। जितना लम्बा सोचने का काम इस राशि वाले करेंगे उतने ही धनवान होते जायेंगे और जितनी कम सोच होगी उतना ही यह गरीब होते जायेंगे,इस राशि वालो को कभी भी मर्यादा और लोकसेवा के प्रति गंदी सोच नही रखनी चाहिये। अक्सर इस राशि वालो के लिये यह भी देखा गया है कि तने वाली फ़सलों से यह अच्छा लाभ उठा सकते है। इस राशि वालो के लिये धन प्रदायक लक्ष्मी का मंत्र -"ह्रौं श्रौं क्रौं ब्रौं ग्रौं द्रौं प्रौं भ्रौं स्त्रौं राज्यलक्ष्मयै नम: स्वाहा", इस राशि वालो को दशांश से हवन करने के लिये घी बतासा अगर चित्रक की छाल अरंड के तने की समिधा से हवन करना चाहिये।

कन्या राशि अर्थ से जुडी राशि है इस राशि का मूल उद्देश्य सेवा वाले कामो को करना होता है,इस राशि के लिये बुद्धि को देने वाली राशि मकर है और भाग्य को देने वाली राशि वृष है। इस राशि वालो के लिये सरकारी क्षेत्र की नौकरी जनता से जुडे काम राज्य में प्रयोग किये जाने वाले धन को संधारण करने वाले काम दवाइयों के काम पुलिस से जुडे काम साफ़ सफ़ाई वाले काम कर्जा दुश्मनी बीमारी को निपटाने के काम धन को धन से जुडे काम लोगो को अपमान मृत्यु से बचाने के काम अध्यापन के काम आदि करने से लाभ होता रहता है। इस राशि वालो को लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये मंत्र - "ह्रां श्रां क्रां ब्रां ग्रां द्रां प्रां भ्रां स्त्रां जयालक्ष्मयै नम: स्वाहा", का जाप करना चाहिये यह जाप एक लाख से सवा लाख तक किया जा सकता है दशांश से हवन करने के लिये शतावर शहद मिश्री घी गोखुरू से करना चाहिये।

अन्य राशियों के लिये ईमेल astrobhadauria@gmail.com से पूंछ सकते है.


Friday, August 10, 2012

भगवान श्रीकृष्ण की गीता मे शक्ति-तत्व

यह सब को भली भांति पता है कि वर्तमान काल मे जिन्दू धर्म का जो जीवित रूप है उसका फ़ल शक्ति सिद्धान्त पर ही टिका है। देश और विदेश के कुछ समालोचको का यह मत है जिसे समय समय पर वे व्यक्त भी करते है और पहले से भी करते रहे है।वैदिक काल मे स्वतंत्र रूप से शक्ति के लिये शाक्त मत की उत्पत्ति हुयी थी और समय पाकर इसने वैदिक धर्म पर अपना अधिकार जमा लिया था। लेकिन समझने के बाद बात ऐसी नही है। शाक्त मत भी उतना ही पुराना है जितना के वेद और और उनकी उत्पत्ति। जीवन का मुख्य उद्देश्य समाज कल्याण की भावना और प्राणी मात्र को उसके अधिकार से दूर नही करना ही माना जाता है।देवताओं के स्वामी इन्द्र को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति करवाने वाली देवी उमा हैमवती को माना जाता है इस बात का विवरण केनोपनिषद मे मिलता है। इस शक्ति का रूप तीन रूप मे मिलता है माया अविद्या और विद्या,लेकिन विश्व की आदि जननी के रूप मे वह मूलप्रकृति कहलाती है। जब हम उसे जगत के कल्याण की नजर से देखते है तो कभी कभी अजीब सा इसलिये लगता है कि शक्ति आसुरी शक्तियों को पहले क्यों पैदा करती है और जब पैदा करती है तो मारती क्यों है ? मारने के बाद शक्ति सन्देश क्या देना चाहती है ? अगर कोई ज्ञानी व्यक्ति इस बात की समालोचना करे तो मेरे ख्याल से एक दिन नही सारी उम्र इस बात की समालोचना मे लग जायेगी। इस बात के लिये शक्ति रूप में व्यक्ति अपनी तरफ़ से तीन प्रकार की शक्तियां अर्जित करने के लिये स्वतंत्र होता है और इन तीन क्रियाओं के मोहजाल मे जाकर ही वह दैव शक्ति और आसुरी शक्तियों को प्राप्त करता है। यह तीन शक्तियां ज्ञान शक्ति इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के रूप मे जानी जाती है। इन तीनो शक्तियों मे ज्ञान की शक्ति आने से इच्छा शक्ति संभाल ली जाती है। और इच्छा शक्ति के संभाले जाने के बाद क्रिया शक्ति के अन्दर मोह भय और लोभ जैसी बाते दूर होकर कर्तव्य का ही आलेख रह जाता है। शक्ति सिद्धान्त के अनुसार ही प्रकृति को शक्ति का भंडार बता दिया गया है। प्रकृति के एक एक कण मे एक महान खजाना भरा हुआ है। कण से अणु और अणु से परमाणु के नजदीक पहुंचने के बाद ही ऐसा लगने लगा है कि आज का विज्ञान शाक्त सिद्धान्त के नजदीक पहुंचता जा रहा है। अब जो बात सामने रह जाती है कि शक्ति कितनी है और उसकी मात्रा या इसका समय कितना है ? इस बात की खोज की गयी तो पता लगा कि तत्व को बरबाद समझना बेकार की बात है कारण तत्व कभी खत्म नही होता है। गर्मी सर्दी की तरफ़ भाग जाती है और सर्दी गर्मी की तरफ़ पानी पानी मे वायु वायु मे पृथ्वी पृथ्वी मे विलीन हो जाती है। इसी भौतिक विज्ञान के साथ साथ अगर जीव विज्ञान और मनोविज्ञान को भी शामिल कर लिया जाये तो यह ज्ञान अटल शक्ति के रूप मे सभी को फ़लीभूत कर फ़ायदा दे सकता है। सांख्य शास्त्र का भी विश्लेषण किया गया तो वह ईश्वर की इस प्रकृति रूपी सत्ता को नही नकारता है और यह भी कहता है कि ईश्वर की सत्ता रूपी प्रकृति की सीमा को भी आकलन मे नही लाया जा सकता है।

जब भी कोई कारण बनता है तो वह कारण शक्ति के रूप मे देखा जाता है,लेकिन कारण शक्ति बिना प्रकृति की शक्ति के बन ही नही सकती है। इसी प्रकृति को परमेश्वर के रूप मे माना जाता है। शक्ति शब्द प्रत्यक्ष रूप से गीता मे भगवान श्रीकृष्ण नही दिया है,गीता मे केवल प्रकृति और माया के साथ साथ गुण को शक्ति के रूप मे देखा गया है। तीसरे अध्याय के पांचवे श्लोक मे कहा गया है - "कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै", अर्थात बिना किसी सन्देह के प्रकृति जो गुण उत्पन्न करती है उसी के वश मे रहकर कर्म किया जाता है। इसी प्रकार से अठारहवे अध्याय मे चालीसवां श्लोक भी लिखा है - "न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:। सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥" अर्थात धरती और स्वर्ग के देवताओं यानी जलचर थलचर नभचर जीवो आदि मे कोई ऐसा नही है जो प्रकृति के तीन गुणों सत रज तम से पूर्ण नही हो। इस प्रकार से प्रकृति से गुण पैदा होते है और उनसे हमारी क्रियायें पैदा होती है। गीता के तेरहवे अध्याय मे भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष का विस्तार से वर्णन किया है। उसमे साफ़ उन्होने बताया है कि पुरुष अथवा जीव इस शरीर मे स्थित होकर दुख और सुख के गुणो को प्रयोग मे लेता है,इसी अध्याय मे कहा गया है कि पुरुष और प्रकृति दोनो ही सनातन है इनकी कोई न आने की सीमा है और न ही समाप्त होने की सीमा है। प्रकृति के गुणो से सुख दुख और जीवन के कारण पैदा होते है। यह सब गुणो के संसर्ग मे रहने के कारण उसी प्रकार से हो जाता है जैसी प्रकृति व्यक्ति को मिलती है। गीता के सातवे अध्याय के नवे श्लोक मे कथन है कि जीव मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगता है,वह एक शरीर से दूसरे शरीर मे पीछे के भोगो को लेकर उसी प्रकार से चला जाता है जैसे हवा फ़ूलो की खुशबू को लेकर दूसरे फ़ूलो की तरफ़ चली जाती है। इसी प्रकार से हर जीव के कर्मो की भिन्नता भी प्रकृति के द्वारा ही निश्चित की जाती है,जो व्यक्ति की पूर्व जीवन की इच्छाये थी उन इच्छाओ को भोगने के लिये जीव की गति बनती है।
इसी प्रकार से जो भी प्रकृति की शक्ति से निश्चित किया गया है वह करना ही होता है जैसे उन्होने अठारहवे अध्याय में उनसठवे श्लोक मे लिखा है-" मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्षति",अर्थात तूने जो प्रण किया है वह झूठ है,प्रकृति तुझसे युद्ध जरूर करवायेगी"।
चौदहवे अध्याय के चौथे श्लोक मे लिखा है - सर्व यौनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥’"अर्थात जितनी भी जीवो की मूर्तियां है या शरीर रूप मे जीव है,उनकी तीनो गुणो से युक्त माया तो माँ है,और मै बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ,यानी परमात्मा प्रकृति के स्वामी और शासक भी है,और सामने नही आकर अपने को अद्रश्य भी किये हुये है वह केवल प्रकृति रूपी शक्ति का कारण ही जाना जा सकता है। गीता के नवे अध्याय मे योगमाया को अपनी शक्ति के रूप मे भी प्रस्तुत किया है। "पश्य मे योगमैश्वरम" के अनुसार योगीश्वर की शक्ति भी प्रकृति की देन है। भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति योगमाया के रूप मे राधा का वर्णन किसी भी शास्त्र मे नही किया गया है,भागवत जैसे महापुराण मे भी राधा के लिये नही बताया है,जबकि यह सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण हमेशा नंगे पांव रहे,कभी सिले हुये वस्त्र नही धारण किये,उम्र की चाल साल तक ही गोकुल मे रहे,केवल चौसठ दिन मे सभी विद्यायें सीख ली,ग्यारह साल और पचपन दिन वृन्दावन मे रहे,राधा का नाम वेद व्यास ने इसलिये नही लिखा है क्योंकि योगमाया के रूप मे राधा व्यास जी गुरु है। अध्याय तेरह मे बारहवे श्लोक मे साफ़ लिखा है कि जो लोग आध्यात्म से नही जुडे होते है वे शरीर को ही आत्मा समझना शुरु कर देते है,साक्षी महेश्वर परमात्मा आदि का रूप गीता मे शक्ति को प्रकृति के रूप मे ही बताने के लिये किया गया है।

Friday, May 11, 2012

कैसे शुभ बनाया जाता है समय ?

जीवन मे दिन रात धूप छांव सर्दी गर्मी सुख दुख सभी समान मात्रा मे आते है और अपने अपने समय मे अपना अपना असर देकर चले जाते है। समझदार अपने समय को सही रूप मे व्यतीत कर लेते है और नासमझ लोग सुख के समय मे सुखी रहकर दुख के समय मे दुखी बने रहते है। सुबह को जागने के बाद नये दिन की शुरुआत होती है। दिन की शुरुआत सही होने पर पूरा दिन सही निकलता है। दिन की शुरुआत ही खराब हो जाये तो पूरा दिन ही खराब हो जाता है।

आजकल के भागम भाग समय मे आम आदमी की नींद पूरी नही हो पाती है और वह नींद पूरी नही होने के कारण दिन भर चिढचिढापन लिये घूमता रहता है,उसे हर काम की जल्दी होती है और वह अपने काम को या तो समय से पूरा कर लेता है या फ़िर किये जाने वाले काम को झल्लाहट की बजह से काम पूरा होने से पहले ही समाप्त कर देता है। उसे अपने को चिन्ता से दूर रखने के लिये कई प्रकार के कृत्रिम साधनो का प्रयोग करना पडता है उन कारणो मे तामसी चीजो का सेवन करना अधिक परेशान होने के कारण घर से दूर रहना और अपनी इच्छाओ की तृप्ति के लिये कोई भी गलत काम कर जाना और उसकी सजा को भुगतना एक आम बात हो गयी है।

शिक्षा के समय आधुनिक एम्यूजमेंट के साधनो से मन के विचलित होने से और एक दूसरे की प्रोग्रेस को देखकर अधिक पनपने के कारणो को अपनाने से एक दूसरे के हित की बात को अनदेखा करने से यहाँ तक के अपने ही परिवार को व्यवसाय की द्रिष्टि से देखने के कारण दिमाग का उत्तेजित हो जाना और जो नही करना है उस काम को कर जाना आदि बाते मुख्य है।

जीवन के तीन मुख्य आयाम है भोजन नींद और कार्य,इन तीनो आयामो को समय से पूरा करने के लिये इनके लिये समय का विभाजन करना बहुत जरूरी होता है। भोजन से शरीर शक्ति नींद से इच्छा शक्ति और कार्य से धन शक्ति का बढना होता है,अगर इन तीनो आयामो को सही रूप से सन्तुलित मात्रा मे प्रयोग किया जाता है वही अपनी पूरी उम्र जीता भी है और सभी सुख भोगता भी है।

सुबह को जागने के बाद अपनी स्वांस पर ध्यान दीजिये,किस नासाग्र से अधिक वायु प्रवाहित हो रही है,दाहिने बहने वाली वायु स्त्रियों को सम्पूर्ण दिन की खुशी को सूचित करती है और बायें नासाग्र से बहने वाली वायु पुरुष वर्ग को पूरे दिन की खुशियों के लिये सूचित करती है। अगर विषम प्रवाह है तो उसे सम बनाने के लिये विरोधी करवट को लेकर बगल के नीचे तकिया आदि लगाकर वायु को सम किया जा सकता है।

सुबह को जागने के बाद उठने पर पहले अपने कर कमल को ध्यान से देखने पर कर्म के अधिकारी की प्रथम पूजा मान ली जाती है,दोनो हाथो को मिलाकर देखने के बाद अपने माथे से दोनो हाथो को लगाकर उठना चाहिये। जिस नासाग्र से वायु प्रवाहित हो रही है उस तरफ़ के पैर को सबसे पहले भूमि से स्पर्श करना चाहिये।

आजकल के समय मे लोग चाय को पीने के बाद ही बिस्तर को त्यागने का कार्य करते है,यह नियम जितनी जल्दी हो छोडने का क्रम अपना चाहिये कारण रात भर शरीर की तन्द्रा अवस्था मे सांस के साथ जो भी विषाणु मुंह मे आये होते है वह अगर पहले साफ़ नही किये गये तो वे वापस शरीर मे जाने के बाद खून के साथ मिलकर उत्तेजना और चिन्ता को प्रकट करने के लिये अपना काम उसी प्रकार से करने लगेंगे जैसे एक एस्प्रिन की गोली खाने के बाद कोशिकाओं का सुन्न हो जाना। जागने के बाद सुबह के क्रियाओं से निवृत होकर चाय आदि का सेवन करना ठीक होता है,सुबह की चाय जैसे भी अच्छी बने उसे बनाने की कोशिश करनी चाहिये,कहावत भी है कि "चाय खराब तो सुबह खराब और दाल खराब तो दिन खराब,पत्नी खराब तो जीवन खराब" सुबह को किसी प्रकार की लेन देन की चिन्ता नही करनी चाहिये।

भोजन आदि के मामले मे भी ध्यान रखना जरूरी है कि सुबह को अगर गरिष्ठ भोजन को कर लिया गया तला भुना या देर से पचने वाला भोजन लिया गया तो शरीर की शक्ति उसे पचाने के लिये अपना काम करने लगेगी बाकी के काम को करने के लिये आलस का सामना करना पडेगा। इसलिये बहुत ही हल्का नास्ता करने के बाद ही काम पर निकलना चाहिये। सुबह को घर के सभी सदस्यों से प्रेम से बोलना चाहिये वह चाहे निजी हो या बाहरी प्रेम से सुबह को बोलने के बाद उनके मन मे आदर का प्रभाव दिन भर भरा रहेगा और उनकी सोच भी अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करती रहेगी।

Wednesday, May 9, 2012

चमत्कारी होता है गोमती चक्र

गो का रूप गाय के लिये माना जाता है और उसे गो भी कहा जाता है,गाय को लक्ष्मी के रूप मे भी देखा जाता है और शुक्र ग्रह का कारक भी माना जाता है। नदियों के किनारे पर जहां गाय पानी पीती है और उनके जुगाली करने वाले फ़ैन का कुछ भाग पानी मे बह जाता है और वह फ़ैन नदी मे पडने वाले छोटे छोटे भंवर मे जाने के बाद  गोल गोल घूमता रहता है कालान्तर मे उस घूमने वाली क्रिया मे नदी के पानी के अन्दर के पत्थरो रेत आदि के कण भी उस फ़ेन मे मिल जाते है और वह फ़ैन एक चक्र का रूप धारण कर लेता है वही चक्र पानी के अन्दर बैठ जाते है और पानी की बहाव और तल आदि आदि से धीरे धीरे खिसक कर तथा नदी का पानी सूखने के बाद यह नदी की रेत मे मिल जाते है यही गोमती चक्र के रूप मे जाने जाते है। 

गोमती चक्र को दक्षिण मे गोमथी चक्र के नाम से भी जाना जाता है और संस्कृत मे धेनुपदी के नाम से भी जाना जाता है प्राचीन काल मे गोमती चक्र का प्रयोग यज्ञ की वेदी के चारो तरफ़ लगाया जाता था,तथा राज्याभिषेख के समय इसे राजसिंहासन पर भी छत्र के ऊपरी भाग मे लगा दिया जाता था। गोमती चक्र के प्रति कहा जाता है कि किसी के पास अगर चार गोमती चक्र है तो वह किसी भी प्रकार की ऊपरी हवा से बचा रह सकता है और वास्तु वेध के लिये भी इसे चार की संख्या मे मुख्य दरवाजे के ऊपर लाल कपडे मे बांध कर रखा जाता है। इस क्रिया से आसुरी शक्तियों का घर मे रहना नही हो पाता है।

गोमती चक्र की बनावट को देखा जाये तो उसके ऊपर चिकने भाग पर हिन्दी के ७ का अंक बना मिलता है,वर्तमान के ज्योतिषियों के अनुसार यह अंक राहु का अंक कहा जाता है और पानी की वस्तु जिसे चन्द्रमा का रूप दिया जाता है उसके अन्दर इस अंक के होने से यह राहु कृत प्रभावो को दूर रखने के लिये अपनी युति को प्रदान करता है साथ ही बेकार की शंका को दूर रखने मे सहायक होता है,जिनकी कुंडली मे राहु चन्द्र की युति होती है वह इसे चांदी की अंगूठी या पेंडल मे बनवाकर धारण कर सकते है।

जो स्त्रियां नपुंसकता की श्रेणी मे आती है और सन्तान पैदा करने मे असमर्थ होती है वे कमर मे कनकती मे सात  गोमती चक्र लगवा कर धारण करने के बाद सन्तानहीनता से दूर होती देखी गयी है। ग्रामीण लोग गोमती चक्र को  दूध वाले जानवरो के गले मे लाल कपडे मे बांध कर रखते है जिससे दूध देने वाले जानवर बुरी नजर से बचे रहते है। कृषक इसे अपने खेत के चारो कोनो मे दबाकर रखते है जिससे मान्यता है कि खेत की फ़सल मे कीडा आदि नही लगता है और बीमारी आदि से बचने के बाद फ़सल अच्छी पैदा होती है.

गोमती चक्र की भस्म शहद मे मिलाकर पैरो के नाखून मे लगाने के बाद वात का दर्द दूर होता देखा गया है। साथ ही पैर के अंगूठे मे लगाने के बाद नेत्र ज्योति भी बढती देखी गयी है।

Monday, May 7, 2012

सफ़ेद कनेर और उसका तांत्रिक प्रयोग

कनेर का पेड अक्सर कम पानी वाले स्थान पर मिल जाता है यह तीन प्रकार का होता है पीला कनेर मजबूत मिट्टी मे पाया जाता है लाल कनेर पठारी भूमि मे मिलता है और सफ़ेद कनेर अधिकतर रेगिस्तानी इलाके मे मिल जाता है।

कनेर का पेड जहरीला होता है उसकी छाल फ़ल फ़ूल पत्ती आदि को तोडने पर दूध निकलता है वह दूध आक के दूध की तरह से जहरीला होता है। कनेर के पत्ते लम्बे और पतले होते है छाया वाले पेडो की जगह पर लगाया जाता है। पीले वाले कनेर के नीचे अक्सर सांप रहते है और लाल कनेर के पास मे जहरीले जानवर जैसे छिपकली बिच्छू आदि पाये जाते है। सफ़ेद कनेर के पास सफ़ेद चीटियां अधिक पायी जाती है और उनके काटने पर एलर्जी जैसे रोग हो जाते है जो खांसी जुकाम आदि लगाने के लिये माने जाते है उनका जहर काफ़ी समय तक के लिये खून के अन्दर बना रहता है और अधिक पैदा होने के कारण खून के थक्के बनाने और ह्रदय रोग का आभास करवाने लगता है,इस प्रकार के व्यक्ति के पसीने मे भयंकर बदबू आने लगती है।

आयुर्वेद मे सफ़ेद कनेर के कई आयुर्वेदिक कारण बताये गये है जैसे जलने पर उसकी हरी पत्तियों को सरसों के तेल मे जलाने के बाद ठंडा करने के बाद जले हुये स्थान पर लगाने से एक तो छाले जल्दी ठीक हो जाते है और जलने के बाद पडे हुये सफ़ेद दाग भी ठीक हो जाते है। इसी प्रकार का उपयोग सूखे छुहारे के साथ हरे पत्ते छाल फ़ूल फ़ल कुचल कर जलाने के बाद ठंडा करने के बाद लगाने से सफ़ेद दाग भी ठीक होते देखे गये है।

पालतू जानवरो मे कीडे लग जाने के कारण और त्वचा वाली बीमारियां हो जाने के बाद अरंडी के तेल मे हरे पत्तो को जलाकर उनकी राख मिलाकर लगाने से ठीक हो जाते है।

तंत्र शास्त्र मे सफ़ेद कनेर के लिये कहा जाता है कि अमावस्या की आधी रात को इस पेड के नीचे बैठ कर शिव आराधना करने से फ़लदायी होती है। इस कनेर के फ़ूलो की माला शिवजी को पहिनाने से मनोवांछित फ़ल मिलने का कारण बनता है। सफ़ेद कनेर के फ़ूलो को हल्दी के साथ पीस कर माथे पर तिलक करने से जगत वशीकरण का रूप भी माना जाता है। भगन्दर और गुदा वाली बीमारियां भी इस कनेर के रस से ठीक होती देखी जाती है।

जिस घरो में ऊपरी शक्तियों का अधिक प्रभाव होता है उनके दरवाजे पर गमले मे लगाने के बाद ऊपरी हवाये दूर रहती है। जो लोग राहु चन्द्र शनि की युति मे पैदा हुये होते है और वृश्चिक राशि का असर उनके जीवन मे होता है तो उन्हे रोजाना इस कनेर के पेड पर दूध मिला जल चढाने के बाद शान्ति मिलती देखी गयी है.

Thursday, April 26, 2012

महामृत्युंजय मंत्र का पूर्ण विधान

महामृत्युंजय मंत्र के लिये कई प्रकार की धारणाये मिलती है और अधिकतर केवल मंत्र को ही बताया गया है तथा बिना विधान के उसके जाप के बाद भी फ़ल प्राप्ति नही होती है तो मंत्र को दोष देकर लोग अलग हो जाते है या काल कर्म ईश्वर को दोष देकर दूर हट जाते है। महामृत्युंजय संजीवनी बूटी की तरह से अपना काम करता है और अपनी अवधि नौ महिने तक काम भी करता है,लेकिन विधान से इसे किया जाय तो अन्यथा केवल वाणी की विग्यता के अलावा और कुछ भी हासिल नही होता है,चालाक पंडित अपनी दक्षिणा लेकर चलते बनते है फ़ल मिले या न मिले यह व्यक्ति के भाग्य पर निर्भर होता है।

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिर जीविन:॥
सप्तैतान संस्म्रेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्ट मम।
जीवेद्वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जित:॥
अर्थात अश्वत्थामा बलि वेदव्यास विभीषण हनुमान कृपाचार्य परशुराम तथा मार्कण्डेय मुनि को जो प्राणी प्रात:काल मे स्मरण करता है वह शतायु होता है।
यह आठों लोग अमर है.
कथा इस प्रकार कही जाती है:-

मुकुन्ड मुनि के कोई संतान नही थी,संतान की प्राप्ति हेतु मुनि ने सप्त्नीक भगवान शिव की आराधना की। भगवान शिव उनकी तपश्या से अत्यन्त प्रसन्न हुये और वर मांगल्ने के लिये कहा। मुनि ने पुत प्राप्ति की कामना व्यक्ति की तो भगवान शिव बोले हे मुने ! तेजस्वी बुद्धिमान ग्यानी चरित्रवान पुत्र चाहते हो तो वह मात्र सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा। अग्यानी और चरित्रहीन पुत्र पूर्ण आयु वाला होगा। आप कैसा पुत्र चाहते हो। मुनि ने अल्पायु वाला गुणवान पुत्र ही मांगा। शिव की कृपा से मुनि को गुण सम्पन्न पुत्र की प्राप्ति हुयी। मुनि ने उसका नाम मार्कण्डेय रखा। 

समयानुकूल उनकी शिक्षा दीक्षा चलती रही। मृत्यु का समय निकट आता जान मुनि चिंतित रहने लगे एक दिन पुत्र ने जब उनकी उदासी का कारण जानना चाहा तो मुनि ने पुत्र को पूरी जानकारी दे दी। मार्कण्डेय को अपनी साधना पर विश्वास था। उन्होने प्रण किया कि मै भगवान मृत्युंजय को प्रसन्न करने के बाद पूर्ण आयु को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार बालक मार्कण्डेय विधि विधान से आशुतोष की उपासना मे लग गये। वे लिंग पूजा करके मृत्युंजय स्तोत्र का पाठ करते थे। शिवजी उनकी साधना से प्रसन्न हुये।

सोलहवे साल मे अन्तिम दिन मृत्यु उनके सम्मुख आ गयी। मार्कण्डेय ने उनसे स्तोत्र को पूर्ण करने देने का आग्रह किया परन्तु मृत्यु ने उन्हे ऐसा करने की अनुमति नही दी। जब काल ने मुनि मार्कण्डेय के प्राण हरण करने चाहे तो भगवान शिव लिंग से प्रकत हो गये। यमदेव भगवान से भयभीत होकर चले गये। स्तोत्र की समाप्ति पर प्रसन्न होकर प्रलयंकर ने उन्हे अमरता का वरदान दिया।

स्तोत्र की विधि

रोजाना नित्य कर्म से मुक्त होकर पवित्र स्थान मे लाल ऊन का आसन बिछाकर पूर्व दिशा की तरफ़ मुंह करके अपने सामने चौकी पर शिव प्रतिमा या लिंग स्थापित कर संकल्प करे,संकल्प मे मानसिक धारणा करे धारणा मे यह भाव होना चाहिये कि कष्ट रोग अल्पमृत्यु का आना भयंकर पीडा आदि कि अपने लिये या किसी दूसरे के लिये उसके नाम गोत्र सहित मानसिक स्मरण करे,संकल्प के पश्चात हाथ मे जल फूल और चावल लेकर विनियोग करें। 

विनियोग

ऊँ अस्य श्री महामृत्युंजय मन्त्रस्य वामदेव कहोलवशिष्ठा ऋषय: पंक्तिगायत्र्युषिणगनुष्टप छन्दसि सदाशिवमहामृत्युंजय्रुद्रो देवतां ह्रां (धरती पर विचरण करने वाले कष्ट जिनका पता हो) ह्रीं (पाताली कारण यानी जिनके बारे मे पता नही हो) ह्रौं (उपरत्व भूत प्रेत पिशाच जो दिखाई नही देने वाले हों) शक्ति: श्रीं बीजं महामृत्युंजय प्रीतये ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग:।

(यह कहकर हाथ मे लिये हुये जल और फ़ूल आदि को धरती पर गिरा दें और ऋषयादि न्यास करें)

ऋष्यादिन्यास

वामदेव कहोल वशिष्ठ ऋषिभ्यो नम: शिरसि । (सिर को छुयें)
पंक्तिगायत्र्युषिणगनुष्टुप छन्दांसि नम: मुखे (मुख को छुयें)
सदाशिवमहामृत्युंजयरुद्र देवतायै नम: ह्रदि। (ह्रदय को छुयें)
ह्रीं शक्तये नम: गुह्ये। (गुह्य भाग को छुयें)
श्रीं बीजाय नम: पादयो। (पैरों को छुयें)
विनियोगाये नम: सर्वांगे । (शरीर के सभी अंगो को स्पर्श करें)

करन्यास

ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: त्र्यम्बकम ऊँ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा - अंगुष्ठाभ्याम नम: (दोनो हाथों की तर्जनी उंगलियों से अंगूठों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: यजामहे ऊँ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवय बद्ध तर्जनीभ्या नम: (अंगूठों से तर्जनियों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम ऊँ भगवते रुद्राय चन्द्र शिरसे जटिने स्वाहा मध्यमाभ्यं नम: (अंगूठों से दोनो मध्यमा उंगलियों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: उर्वारुकमिवबन्धनात ऊँ भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय ह्रीं ह्रीं अनामिकाभ्याम नम: (दोनो अंगूठों से अनामिका उंगलियों को छुयें).



Wednesday, April 18, 2012

उड्डीस तंत्र

ज्ञानांजन शलाका द्वारा अज्ञानता को दूर कर ज्ञान चक्षुओं को खोल देने वले श्री सदगुरुदेव को नमस्कार है। कैलाश पर्वत की चोटी पर बैठे हुये भगवान शिव से रावण ने निवेदन किया हे प्रभु आप मुझे ऐसी कोई तंत्र विद्या बतायें जिससे क्षणमात्र मे सिद्धि की प्राप्ति हो जाये। भगवान शिव बोले हे वस्त तुमने यह श्रेष्ठ प्रश्न पूछा है अत: लोक हितार्थ मैं उड्डीस तंत्र का वर्णन कर रहा हूँ।

जिसे उड्डीस तंत्र का पता नही है वह दूसरो पर गुस्सा करने के बाद कर भी क्या सकता है वह केवल अपने लहू और आत्मा मे चीत्कार कर सकता है और अपने ही शरीर को जला सकता है अपनी दिन चर्या को बरबाद कर सकता है। जैसे रात मे चन्द्रमा नही हो तो रात बेकार लगती है दिन मे सूर्य नही उदय हो तो दिन बेकार हो जाता है जिस राज्य मे राजा नही होता वह राज्य बेकार होती है वैसे बिना गुरु के कोई भी मंत्र की सिद्धि नही होती है।

पुस्तकों को पढकर किसी भी विद्या का ज्ञान नही होता है बिना गुरु के किसी भी तंत्र का अनुष्ठान हो ही नही सकता है,कलयुग मे जब गुरु की मान्यता ही समाप्त हो जाती है तो तंत्र के नाम पर केवल मदारी जैसे करिश्मे दिखाने से कोई तांत्रिक नही बनता है,गुरु मिलते भी है तो वे केवल अपना भंडार भरने वाले होते है,जो झूठ बोलना जानता हो और मजाक करने के बाद अपनी प्रस्तुति देना जानता हो कलयुग मे वही ज्ञानी और भक्ति से युक्त जान पडता है,इस समय मे भजन और कीर्तन भी चकाचौंध मे किये जाते है जो जितना मोहक और कामुक गाना बजाना नृत्य करना जानता है वही बडा भजन गाने वाला और भक्त कहलाता है।

उड्डीस तंत्र मे षडकर्म का उल्लेख जरूरी है इनके विधिवत अनुष्ठान से मनुष्य कुछ सिद्धिया जरूर प्राप्त कर सकता है जिससे वह अपनी जीविका और घोर जिन्दगी को खुशी जिन्दगी मे बदल सकता है। षटकर्म विधान मे शान्ति कर्म वशीकरण स्तंभन बैरभाव उच्चाटन और मारण आदि षटकर्म कहे गये है। जब मनुष्य अधिक क्रूर व्यक्तियों और समुदाय मे घिर जाता है चारो तरफ़ कलह और मारधाड ही देखने को मिलती है कसाई का काम करने वाले बढ जाते है तो शान्ति कर्म की प्रधानता बताई जाती है इस शान्ति कर्म वाले विधान करने से क्रूर शक्तियां पलायन कर जाती है और खुशहाली आजाती है लोग एक दूसरे के प्रति दया करना शुरु कर देते है। यही शान्ति कर्म जब शरीर मे रोग पैदा होते है ग्रहो का दोष पैदा हो जाता है तो किये जाते है।

जब अपना स्थान बनाने केलिये और अपने को सभी के प्रति सम्मान के भाव मे प्रस्तुत करने के लिये सभी को अपने प्रभाव मे लाने के लिये जो कार्य किये जाते है वह वशीकरण की श्रेणी मे आते है।पति पत्नी मे जब बैर भाव पैदा हो जाये माता पुत्र अलग अलग हो जाये पिता का सहयोग नही बन रहा हो भाई बहिन ही खुद के बैरी हो जाये तो वशीकरण नामक प्रयोग लाभदायी होता है।

जब समस्याये लगातार आगे बढती आ रही हो बैर करने वाले लोग चारो तरफ़ से घेरा डाल रहे हो पुलिस मुकद्दमा अस्प्ताल आदि के कारण लगातार घेरने लगे हो तो स्तम्भन नाम का तंत्र प्रयोग किया जाता है यही प्रयोग वे लोग भी अपनाते है जो अपने साथ के लोगो से आगे निकलने की होड मे अपने प्रभाव को हमेशा रखने के लिये उन्हे पीछे करना चाहते है लेकिन यह पापकर्म के अन्दर आने से उड्डीस तंत्र मे इसका प्रयोग खुद के लिये हानिकारक बन जाता है,जहां कोई बैर से आगे बढने की योजना को बनाता है और छल फ़रेब से आगे निकलने की क्रिया को करता है अनुचित काम करने के बाद वह आगे जाना चाहता है उसके लिये स्तम्भन का कार्य करना हितकर होता है।

जब दो लोग या कई लोग मिलकर किसी के अहित की बात करते है राज्य को गिराने की कोशिश मे होते है किसी दयावान को परास्त करने की योजना को बनाते है किसी एक समुदाय द्वारा हिंसक योजना से किसी अन्य समुदाय को विनाश की योजना आदि बनाने मे जिनका मन लगता है और वे कई लोगो के साथ मिलकर योजना को बनाकर अनुचित काम करना चाहते है या कई ग्रुप मिलकर एक ग्रुप को समाप्त करना चाहते है उनके लिये विद्वेषण तंत्र का प्रयोग किया जाता है जिससे वह इकट्ठे भी नही रह पाते है और वह किसी अन्य के प्रति कभी भी कोई अनुचित काम भी नही कर पाते है।

जब कोई एक स्थान पर रहकर अनुचित कामो मे लगा हुआ है उसके रहते हुये कई लोगो को परेशानी हो रही है वह लोकहित के कामो को तिलांजलि देकर अनैतिक कामो को कर रहा है जिससे समाज परिवार और घर के अन्दर कलह का वातावरण आदि बनता जा रहा है एकता के अन्दर वह व्यक्ति अपनी नीति और चालाकी से दिक्कत को देने वाला है उसके लिये उच्चाटन नामक तंत्र का प्रयोग किया जाता है। इस प्रयोग के बाद वह दिक्कत देने वाला व्यक्ति दूर चला जाता है और समाज परिवार समुदाय सुरक्षित रह जाता है।

जब एक व्यक्ति लोगो के लिये हिंसा का काम करने लग जाये वह मनुष्य और जीवो को मारने काटने मे ही रुचि को रखना शुरु कर दे उसे दया का नाम ही पता नही हो तथा वह धर्म अर्थ काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थो का विनास करने पर तुल जाये तो उसके लिये जो प्रयोग किया जाता है वह मारण प्रयोग के नाम से जाना जाता है।

षटकर्मो के देवी देवता भी होते है जिनकी उपासना करने से इन कर्मो की सिद्धि प्राप्त होती है। शांति के काम करने के लिये वशीकरण के लिये अपनी वाणी को प्रयोग मे लाने के लिये स्तंभन के लिये लक्ष्मी की उपासना की जाती है। ज्येष्ठा नामक शक्ति की उपासना उच्चाटन के लिये की जाती है,मारण प्रयोग के लिये काली की उपासना की जाती है।

षटकर्मो को करने के लिये दिशा का निर्धारण भी किया जाता है शांति कर्म को करने के लिये ईशान दिशा मे बैठ कर और ईशान मे ही अपने मुंह को करने के बाद आराधना करना चाहिये वशीकरण के लिये उत्तर दिशा की तरफ़ बैठ कर और अपना मुंह भी उत्तर दिशा की तरफ़ करके बैठ कर उपासना करना चाहिये। स्तम्भन के लिये पूर्व दिशा मे मुंह करके बैठना चाहिये विद्वेषण के लिये दक्षिण-पश्चिम दिशा मे बैठकर उपासना करना चाहिये और इसी दिशा मे अपने मुंह को करना चाहिये। उच्चाटन के लिये उत्तर-पश्चिम दिशा मे मुंह करके बैठना चाहिये मारण कर्म के लिये उपासना करने के लिये अग्नि कोण यानी दक्षिण-पूर्व दिशा मे बैठ कर और मुंह करके उपासना करना चाहिये।

इन कर्मो को करने के लिये समय का भी निर्धारण किया जाता है। वैसे तो साल मे ऋतुओं का आना जाना होता है लेकिन सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के बीच मे भी छ: ऋतुयें आती जाती है। सूर्योदय से चार घंटे के लिये बसंत ऋतु का आना होता है,फ़िर चार घंटे के लिये ग्रीष्म ऋतु का आना होता है उसके बाद वर्षा ऋतु का आना होता है,फ़िर शरद ऋतु का आना होता है फ़िर हेमंत ऋतु का आना होता है और दूसरे सूर्योदय के समय तक शिशिर ऋतु का आना होता है।

सूर्योदय से चार घंटे की अवधि बसंत ऋतु की होती है इस समय में वशीकरण वाली साधना की जाती है,सूर्योदय के चार घंटे बाद ग्रीष्म ऋतु में विद्वेषण की साधना की जाती है। सूर्योदय के आठ घंटे बाद वर्षा ऋतु के समय में उच्चाटन की साधना की जाती है,सूर्योदय के बारह घंटे बाद मारण क्रिया की साधना की जाती है,सूर्योदय के सोलह घंटे बाद शांति कर्म की साधना की जाती है,सूर्योदय के बीस घंटे के बाद स्तम्भन क्रिया की साधना की जाती है यह साधना किसी भी देश मे किसी भी ऋतु मे हमेशा ही मान्य होती है।

हिन्दू तिथि के अनुसार दूज तीज पंचमी और सप्तमी बुधवार गुरुवार और सोमवार शांति कर्म के लिये प्रयोग मे है गुरुवार सोमवार को आने वाली छठ चौथ त्रियोदशी नवमी अष्टमी दसमी पुष्टि कर्मो के लिये दसवी एकादशी अमावस्या नवमी पडवा व शुक्रवार रविवार को आने वाली पूर्णिमा विद्वेषण हेतु कही गयी है। छठ चौथ आठें विशेष रूप से प्रदोष को यदि शनिवार आता हो तो उच्चाटन करना उचित नही होता है इसी प्र्काअर से अन्धेरी रात की चौदस अमावस्या तिथि और शनिवार या मंगलवार के दिन मारण कर्म करना मना किया गया है,साथ ही स्तंभन के काम हेतु बुधवार या सोमवार तथा पंचमी दसवी और पूर्णिमा तिथि खराब बताई जाती है,जब अनुकूल ग्रह हों तभी शांति पुष्ट और शुभ काम करना चाहिये। जब प्रतिकूल ग्रह हो तब मारण उच्चाटन आदि कार्य नही करना चाहिये इसी प्रकार से रिक्ता तिथियों चौथ नौवीं चौदस मे विद्वेषण व उच्चाटन आदि काम और मृत्यु योग होने पर मारण करना नही बताया गया है।

ज्येष्ठा उत्तराषाढा अनुराधा रोहिणी उतराभाद्रपद मूल शतभिषा पूर्वाभाद्रपद आश्लेषा नक्षत्रों मे स्तंभव मोहन वशीकरण करने मे सफ़लता मिलती हिअ इसी तरह से स्वाति हस्त मृगशिरा चित्रा उत्तराफ़ाल्गुनी पुष्य व पुनर्वसु अश्विनी भरणी आर्द्रा धनिष्ठा श्रवण मघा विशाखा कृत्तिका पूर्वाफ़ाल्गुनी रेवती नक्षत्रों में विद्वेषण व उच्चाटन कर्म करने से सफ़लता मिलती है। दिन के पूर्व भाग मे वशीकरण मध्यभाग में विद्वेषण व उच्चाटन अंतिम भाग में शांति और पुष्ट कर्म प्रदोषकाल शाम के समय मे मारण आदि कर्म करना फ़लदायी नही होता है। सिंह या वृश्चिक लगन मे स्तंभन कर्म कर्क या तुला लगन मे उच्चाटन कर्म तथा मेष कन्या धनु मीन लगन मे वशीकरण शंति पुष्टि मारण उच्चाटन शत्रुदमन आदि करना खराब बताया गया है।

तत्व के उदय होने पर कौन सा कर्म करना उचित रहता है वह इस प्रकार है शांति कर्म जल तत्व के उदय होने पर वशीकरण अग्नि तत्व के उदय होने पर स्तंभन भूमि तत्व के उदय होने पर विद्वेषण आकाश तत्व के उदय होने पर उच्चाटन वायु तत्व के उदय होने पर मारण कर्म भूमि तत्व के उदय होने पर करना उचित नही होता है इसी तरह तत्व उदय के बारे मे जानकार तत्संबन्धी तत्वानुसार मंडल बनाकर कर्म करने से सिद्धि मिलती है। वशीकरण शोभन कार्यो के लिये लाल रंग के देव देवी शांति विष प्रभाव को दूर करने के लिये पुष्टि कर्म के लिये सफ़ेद रंग के देव का मनाया जाना उचित होता है,स्तम्भन कार्य के लिये पीले रंग के देव देवी उच्चाटन कर्म के लिये धुयें के रंग के देवी देवता उन्माद कर्म के लिये भी लाल रंग के देवी देवता मारण कर्म के लिये काले रंग के देवी देवता का ध्यान करना उचित होता है।

मारण कर्म मे खडे हुये रूप में उच्चाटन काल मे सोते हुये अन्य कर्मो मे सामने बैठे हुये देवता का ध्यान करना चाहिये। सात्विक काम मे सफ़ेद देवता का सामने बैठे हुये रूप का ध्यान करना ठीक होता है इसी प्रकार किसी प्रकार के राजसी काम पीले व लाल रंग के व काले रंग के देवता को ध्यान मे रखना चाहिये तामसिक काल मे वाहन पर सवार काले देवता का ध्यान करना चाहिये मोक्षकामी को सात्विक राज्य की आशा वाले को राजसी रूप का ध्यान रखना चाहिये इसी प्रकार से शत्रु विनास पीडा हरण व समस्त विघ्न विनाश हेतु देवता का तामसिक रूप का ध्यान करना चाहिये।

रुद्र मंगल गरुड गंधर्व यक्ष सर्प किन्नर पिशाच भूत असुर इंद्र विद्याधर देवता आदि सभी मंत्रो के अधिष्ठाता देवता है। एक वर्ण का मंत्र कर्तरी यानी इच्छा को खत्म करने वाला और कमजोर दो वर्ण का मंत्र सूची यानी बिना मांगे ही दुख को देने वाला तीन अक्षर का मंत्र डंडे का काम करने वाला चार अक्षर का मंत्र मूसल का काम करने वाला पांच अक्षरो का मंत्र क्रूर शनि के रूप में छ: अक्षर का मंत्र लगातार विचार मे मग्न रहने वाला सात अक्षर का मंत्र कांच की तरह तोड देने वाला आठ अक्षर का मंत्र कांटे की तरह से चुभने वाला नौ अक्षर का मंत्र पत्थर की तरह से कठोर दस का शक्ति ग्यारह का फ़रसे जैसा बारह का चक्र तेरह का दो भालो के रूप मे चौदह का नाराच पन्द्रह का भुसुंडी अस्त्र सोलह का पद्म यानी कमल के रूप का माना जाता है। वाणी को समाप्त करने मे कर्तरी भेद कर्म मे सूची भजन मे मुदगर अरुचि पैदा करने में मूसल बन्धन में श्रंखल विद्वेषण मे डंडा सभी कामो मे चक्र उन्माद मे कुलिस सैन्य भेदन में नाराच मारण कर्म में भुसुण्डी शांति कर्म मे पदम मंत्र का उच्चारण करने मे अभीष्ट की प्राप्ति होती है।

पचास अक्षरो का मंत्र जो देवी माँ के रूप मे प्रयोग किया गया हो वह सभी प्रकार के भय हरने वाला कहा जाता है जो व्यक्ति जिस किसी कामना से किसी प्रकार का मंत्र जाप करता है उसकी वह मनोकामना पूरी होती है मंत्र के प्रारम्भ मे आने वाला नाम पल्लव कहलाता है मारण विनाश ग्रह भूत आदि के शमन के लिये उच्चाटन विद्वेषण कामो के लिये पल्लव युक्त मंत्र का ही जाप किया जाता है। मंत्र के आखिर मे आने वाला नाम योजन मंत्र कहलाता है इस मंत्र का जाप वशीकरण प्रायश्चित मोहन दीपन आदि कामो मे प्रयोग किया जाता है इनके अतिरिक्त स्तंभन व विद्वेषण कर्मो मे भी इस मंत्र का जाप किया जाता है नाम के प्रारम्भ मध्य और अंत मे मंत्र आने से इसे रोध मंग कहा जाता है अभिमुखीकरण सभी प्रकार की व्याधियों बुखार ग्रह प्रकोप विष आदि के प्रभाव को दूर करने के लिये रोध मंत्र का ही जाप किया जाना चाहिये। नाम के आदि मध्य अंत मे जो मंत्र आता है वह ग्रंथन मंत्र कहलाता है,इस मंत्र का जाप शांति कर्म मे किया जाता है नाम के प्रारम्भ मे अनुलोम व अंत मे विलोम रूप से जो मंत्र आता है वह संपुट मंत्र कहलाता है कीलन कर्म मे संपुट मंत्र का जाप किया जाता है इसके अलावा स्तंभन मौत को दूर करने रक्षा करने जैसे कर्म भी इस मंत्र का जाप करने से सिद्धि मिलती है।

प्रारम्भ मे पूर्ण मंत्र बोलकर साध्य का नामोच्चारण कर फ़िर प्रतिकूल भाव से पूर्ण मंत्र का उच्चारण करने को भी तंत्रशास्त्र मे संपुट मंत्र ही कहा गया है इसी प्रकार मंत्र व साध्य नाम के दो वर्णों का क्रमानुगत उच्चारण ही सविदर्भ मंत्र कहलाता है इस मंत्र का उपयोग वशीकरण आकर्षण व पुष्टि कर्म आदि मे करने से सिद्धि प्राप्त होती है। बन्धन उच्चाटन व विद्वेषण मे हुं अरिष्ट ग्रह शांति हेतु हुं फ़ट पुष्टि शांति कर्म हेतु वौषट हवन करते समय स्वाहा पूजन काल मे नम: का उच्चारण किया जाना चाहिये,शांति व पुष्टि कर्म मे स्वाहा वशीकरण मे स्वधा विद्वेषण मे वषट आकर्षण में हुं उच्चाटन में वैषट मारण में फ़ट बीजमंत्र का उच्चारण किया जाता है।

आगे जारी है ...........................!