Friday, August 10, 2012

भगवान श्रीकृष्ण की गीता मे शक्ति-तत्व

यह सब को भली भांति पता है कि वर्तमान काल मे जिन्दू धर्म का जो जीवित रूप है उसका फ़ल शक्ति सिद्धान्त पर ही टिका है। देश और विदेश के कुछ समालोचको का यह मत है जिसे समय समय पर वे व्यक्त भी करते है और पहले से भी करते रहे है।वैदिक काल मे स्वतंत्र रूप से शक्ति के लिये शाक्त मत की उत्पत्ति हुयी थी और समय पाकर इसने वैदिक धर्म पर अपना अधिकार जमा लिया था। लेकिन समझने के बाद बात ऐसी नही है। शाक्त मत भी उतना ही पुराना है जितना के वेद और और उनकी उत्पत्ति। जीवन का मुख्य उद्देश्य समाज कल्याण की भावना और प्राणी मात्र को उसके अधिकार से दूर नही करना ही माना जाता है।देवताओं के स्वामी इन्द्र को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति करवाने वाली देवी उमा हैमवती को माना जाता है इस बात का विवरण केनोपनिषद मे मिलता है। इस शक्ति का रूप तीन रूप मे मिलता है माया अविद्या और विद्या,लेकिन विश्व की आदि जननी के रूप मे वह मूलप्रकृति कहलाती है। जब हम उसे जगत के कल्याण की नजर से देखते है तो कभी कभी अजीब सा इसलिये लगता है कि शक्ति आसुरी शक्तियों को पहले क्यों पैदा करती है और जब पैदा करती है तो मारती क्यों है ? मारने के बाद शक्ति सन्देश क्या देना चाहती है ? अगर कोई ज्ञानी व्यक्ति इस बात की समालोचना करे तो मेरे ख्याल से एक दिन नही सारी उम्र इस बात की समालोचना मे लग जायेगी। इस बात के लिये शक्ति रूप में व्यक्ति अपनी तरफ़ से तीन प्रकार की शक्तियां अर्जित करने के लिये स्वतंत्र होता है और इन तीन क्रियाओं के मोहजाल मे जाकर ही वह दैव शक्ति और आसुरी शक्तियों को प्राप्त करता है। यह तीन शक्तियां ज्ञान शक्ति इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के रूप मे जानी जाती है। इन तीनो शक्तियों मे ज्ञान की शक्ति आने से इच्छा शक्ति संभाल ली जाती है। और इच्छा शक्ति के संभाले जाने के बाद क्रिया शक्ति के अन्दर मोह भय और लोभ जैसी बाते दूर होकर कर्तव्य का ही आलेख रह जाता है। शक्ति सिद्धान्त के अनुसार ही प्रकृति को शक्ति का भंडार बता दिया गया है। प्रकृति के एक एक कण मे एक महान खजाना भरा हुआ है। कण से अणु और अणु से परमाणु के नजदीक पहुंचने के बाद ही ऐसा लगने लगा है कि आज का विज्ञान शाक्त सिद्धान्त के नजदीक पहुंचता जा रहा है। अब जो बात सामने रह जाती है कि शक्ति कितनी है और उसकी मात्रा या इसका समय कितना है ? इस बात की खोज की गयी तो पता लगा कि तत्व को बरबाद समझना बेकार की बात है कारण तत्व कभी खत्म नही होता है। गर्मी सर्दी की तरफ़ भाग जाती है और सर्दी गर्मी की तरफ़ पानी पानी मे वायु वायु मे पृथ्वी पृथ्वी मे विलीन हो जाती है। इसी भौतिक विज्ञान के साथ साथ अगर जीव विज्ञान और मनोविज्ञान को भी शामिल कर लिया जाये तो यह ज्ञान अटल शक्ति के रूप मे सभी को फ़लीभूत कर फ़ायदा दे सकता है। सांख्य शास्त्र का भी विश्लेषण किया गया तो वह ईश्वर की इस प्रकृति रूपी सत्ता को नही नकारता है और यह भी कहता है कि ईश्वर की सत्ता रूपी प्रकृति की सीमा को भी आकलन मे नही लाया जा सकता है।

जब भी कोई कारण बनता है तो वह कारण शक्ति के रूप मे देखा जाता है,लेकिन कारण शक्ति बिना प्रकृति की शक्ति के बन ही नही सकती है। इसी प्रकृति को परमेश्वर के रूप मे माना जाता है। शक्ति शब्द प्रत्यक्ष रूप से गीता मे भगवान श्रीकृष्ण नही दिया है,गीता मे केवल प्रकृति और माया के साथ साथ गुण को शक्ति के रूप मे देखा गया है। तीसरे अध्याय के पांचवे श्लोक मे कहा गया है - "कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै", अर्थात बिना किसी सन्देह के प्रकृति जो गुण उत्पन्न करती है उसी के वश मे रहकर कर्म किया जाता है। इसी प्रकार से अठारहवे अध्याय मे चालीसवां श्लोक भी लिखा है - "न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन:। सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥" अर्थात धरती और स्वर्ग के देवताओं यानी जलचर थलचर नभचर जीवो आदि मे कोई ऐसा नही है जो प्रकृति के तीन गुणों सत रज तम से पूर्ण नही हो। इस प्रकार से प्रकृति से गुण पैदा होते है और उनसे हमारी क्रियायें पैदा होती है। गीता के तेरहवे अध्याय मे भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष का विस्तार से वर्णन किया है। उसमे साफ़ उन्होने बताया है कि पुरुष अथवा जीव इस शरीर मे स्थित होकर दुख और सुख के गुणो को प्रयोग मे लेता है,इसी अध्याय मे कहा गया है कि पुरुष और प्रकृति दोनो ही सनातन है इनकी कोई न आने की सीमा है और न ही समाप्त होने की सीमा है। प्रकृति के गुणो से सुख दुख और जीवन के कारण पैदा होते है। यह सब गुणो के संसर्ग मे रहने के कारण उसी प्रकार से हो जाता है जैसी प्रकृति व्यक्ति को मिलती है। गीता के सातवे अध्याय के नवे श्लोक मे कथन है कि जीव मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगता है,वह एक शरीर से दूसरे शरीर मे पीछे के भोगो को लेकर उसी प्रकार से चला जाता है जैसे हवा फ़ूलो की खुशबू को लेकर दूसरे फ़ूलो की तरफ़ चली जाती है। इसी प्रकार से हर जीव के कर्मो की भिन्नता भी प्रकृति के द्वारा ही निश्चित की जाती है,जो व्यक्ति की पूर्व जीवन की इच्छाये थी उन इच्छाओ को भोगने के लिये जीव की गति बनती है।
इसी प्रकार से जो भी प्रकृति की शक्ति से निश्चित किया गया है वह करना ही होता है जैसे उन्होने अठारहवे अध्याय में उनसठवे श्लोक मे लिखा है-" मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्षति",अर्थात तूने जो प्रण किया है वह झूठ है,प्रकृति तुझसे युद्ध जरूर करवायेगी"।
चौदहवे अध्याय के चौथे श्लोक मे लिखा है - सर्व यौनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥’"अर्थात जितनी भी जीवो की मूर्तियां है या शरीर रूप मे जीव है,उनकी तीनो गुणो से युक्त माया तो माँ है,और मै बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ,यानी परमात्मा प्रकृति के स्वामी और शासक भी है,और सामने नही आकर अपने को अद्रश्य भी किये हुये है वह केवल प्रकृति रूपी शक्ति का कारण ही जाना जा सकता है। गीता के नवे अध्याय मे योगमाया को अपनी शक्ति के रूप मे भी प्रस्तुत किया है। "पश्य मे योगमैश्वरम" के अनुसार योगीश्वर की शक्ति भी प्रकृति की देन है। भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति योगमाया के रूप मे राधा का वर्णन किसी भी शास्त्र मे नही किया गया है,भागवत जैसे महापुराण मे भी राधा के लिये नही बताया है,जबकि यह सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण हमेशा नंगे पांव रहे,कभी सिले हुये वस्त्र नही धारण किये,उम्र की चाल साल तक ही गोकुल मे रहे,केवल चौसठ दिन मे सभी विद्यायें सीख ली,ग्यारह साल और पचपन दिन वृन्दावन मे रहे,राधा का नाम वेद व्यास ने इसलिये नही लिखा है क्योंकि योगमाया के रूप मे राधा व्यास जी गुरु है। अध्याय तेरह मे बारहवे श्लोक मे साफ़ लिखा है कि जो लोग आध्यात्म से नही जुडे होते है वे शरीर को ही आत्मा समझना शुरु कर देते है,साक्षी महेश्वर परमात्मा आदि का रूप गीता मे शक्ति को प्रकृति के रूप मे ही बताने के लिये किया गया है।