महामृत्युंजय मंत्र के लिये कई प्रकार की धारणाये मिलती है और अधिकतर केवल मंत्र को ही बताया गया है तथा बिना विधान के उसके जाप के बाद भी फ़ल प्राप्ति नही होती है तो मंत्र को दोष देकर लोग अलग हो जाते है या काल कर्म ईश्वर को दोष देकर दूर हट जाते है। महामृत्युंजय संजीवनी बूटी की तरह से अपना काम करता है और अपनी अवधि नौ महिने तक काम भी करता है,लेकिन विधान से इसे किया जाय तो अन्यथा केवल वाणी की विग्यता के अलावा और कुछ भी हासिल नही होता है,चालाक पंडित अपनी दक्षिणा लेकर चलते बनते है फ़ल मिले या न मिले यह व्यक्ति के भाग्य पर निर्भर होता है।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिर जीविन:॥
सप्तैतान संस्म्रेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्ट मम।
जीवेद्वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जित:॥
अर्थात अश्वत्थामा बलि वेदव्यास विभीषण हनुमान कृपाचार्य परशुराम तथा मार्कण्डेय मुनि को जो प्राणी प्रात:काल मे स्मरण करता है वह शतायु होता है।
यह आठों लोग अमर है.
कथा इस प्रकार कही जाती है:-
मुकुन्ड मुनि के कोई संतान नही थी,संतान की प्राप्ति हेतु मुनि ने सप्त्नीक भगवान शिव की आराधना की। भगवान शिव उनकी तपश्या से अत्यन्त प्रसन्न हुये और वर मांगल्ने के लिये कहा। मुनि ने पुत प्राप्ति की कामना व्यक्ति की तो भगवान शिव बोले हे मुने ! तेजस्वी बुद्धिमान ग्यानी चरित्रवान पुत्र चाहते हो तो वह मात्र सोलह वर्ष तक जीवित रहेगा। अग्यानी और चरित्रहीन पुत्र पूर्ण आयु वाला होगा। आप कैसा पुत्र चाहते हो। मुनि ने अल्पायु वाला गुणवान पुत्र ही मांगा। शिव की कृपा से मुनि को गुण सम्पन्न पुत्र की प्राप्ति हुयी। मुनि ने उसका नाम मार्कण्डेय रखा।
समयानुकूल उनकी शिक्षा दीक्षा चलती रही। मृत्यु का समय निकट आता जान मुनि चिंतित रहने लगे एक दिन पुत्र ने जब उनकी उदासी का कारण जानना चाहा तो मुनि ने पुत्र को पूरी जानकारी दे दी। मार्कण्डेय को अपनी साधना पर विश्वास था। उन्होने प्रण किया कि मै भगवान मृत्युंजय को प्रसन्न करने के बाद पूर्ण आयु को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार बालक मार्कण्डेय विधि विधान से आशुतोष की उपासना मे लग गये। वे लिंग पूजा करके मृत्युंजय स्तोत्र का पाठ करते थे। शिवजी उनकी साधना से प्रसन्न हुये।
सोलहवे साल मे अन्तिम दिन मृत्यु उनके सम्मुख आ गयी। मार्कण्डेय ने उनसे स्तोत्र को पूर्ण करने देने का आग्रह किया परन्तु मृत्यु ने उन्हे ऐसा करने की अनुमति नही दी। जब काल ने मुनि मार्कण्डेय के प्राण हरण करने चाहे तो भगवान शिव लिंग से प्रकत हो गये। यमदेव भगवान से भयभीत होकर चले गये। स्तोत्र की समाप्ति पर प्रसन्न होकर प्रलयंकर ने उन्हे अमरता का वरदान दिया।
स्तोत्र की विधि
रोजाना नित्य कर्म से मुक्त होकर पवित्र स्थान मे लाल ऊन का आसन बिछाकर पूर्व दिशा की तरफ़ मुंह करके अपने सामने चौकी पर शिव प्रतिमा या लिंग स्थापित कर संकल्प करे,संकल्प मे मानसिक धारणा करे धारणा मे यह भाव होना चाहिये कि कष्ट रोग अल्पमृत्यु का आना भयंकर पीडा आदि कि अपने लिये या किसी दूसरे के लिये उसके नाम गोत्र सहित मानसिक स्मरण करे,संकल्प के पश्चात हाथ मे जल फूल और चावल लेकर विनियोग करें।
विनियोग
ऊँ अस्य श्री महामृत्युंजय मन्त्रस्य वामदेव कहोलवशिष्ठा ऋषय: पंक्तिगायत्र्युषिणगनुष्टप छन्दसि सदाशिवमहामृत्युंजय्रुद्रो देवतां ह्रां (धरती पर विचरण करने वाले कष्ट जिनका पता हो) ह्रीं (पाताली कारण यानी जिनके बारे मे पता नही हो) ह्रौं (उपरत्व भूत प्रेत पिशाच जो दिखाई नही देने वाले हों) शक्ति: श्रीं बीजं महामृत्युंजय प्रीतये ममाभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोग:।
(यह कहकर हाथ मे लिये हुये जल और फ़ूल आदि को धरती पर गिरा दें और ऋषयादि न्यास करें)
ऋष्यादिन्यास
वामदेव कहोल वशिष्ठ ऋषिभ्यो नम: शिरसि । (सिर को छुयें)
पंक्तिगायत्र्युषिणगनुष्टुप छन्दांसि नम: मुखे (मुख को छुयें)
सदाशिवमहामृत्युंजयरुद्र देवतायै नम: ह्रदि। (ह्रदय को छुयें)
ह्रीं शक्तये नम: गुह्ये। (गुह्य भाग को छुयें)
श्रीं बीजाय नम: पादयो। (पैरों को छुयें)
विनियोगाये नम: सर्वांगे । (शरीर के सभी अंगो को स्पर्श करें)
करन्यास
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: त्र्यम्बकम ऊँ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा - अंगुष्ठाभ्याम नम: (दोनो हाथों की तर्जनी उंगलियों से अंगूठों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: यजामहे ऊँ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवय बद्ध तर्जनीभ्या नम: (अंगूठों से तर्जनियों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम ऊँ भगवते रुद्राय चन्द्र शिरसे जटिने स्वाहा मध्यमाभ्यं नम: (अंगूठों से दोनो मध्यमा उंगलियों को छुयें)
ऊँ हौं जूं स: भू भुर्व: स्व: उर्वारुकमिवबन्धनात ऊँ भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय ह्रीं ह्रीं अनामिकाभ्याम नम: (दोनो अंगूठों से अनामिका उंगलियों को छुयें).
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