Sunday, October 31, 2010

दीपावली पूजा में दस दिक्पाल

दीपावली की पूजा में दस दिक्पालों की पूजा बहुत ही जरूरी मानी जाती है। जैसे बिना खेत की बाड के खेत की फ़सल को सुरक्षित नही रखा जा सकता है वैसे ही बिना दिक्पाल की पूजा के व्यवसाय घर और शरीर की सुरक्षा भी नही की जा सकती है। जो लोग सीधे से दीपावली पूजन के बाद लक्ष्मी को प्राप्त करने की धारणा करते है उनका हाल बाद में वही होता है कि उगी हुयी फ़सल को बिना किसी रखवाले के कोई भी बरबाद कर जाये। दस दिक्पालों का अर्थ होता है दसों दिशाओं के देवताओं की पूजा। वैसे चार दिशायें मुख्य रूप से मानी जाती है,पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर,लेकिन इन चार के बीच के कोणों के नाम भी माने जाते है यथा ईशान आग्नि नैऋत्य और वायव्य जैसे अपने चारों तरफ़ आठ दिशायें है उसी प्रकार से ऊपर और नीचे को भी दिशाओं के लिये मान्यता दी गयी है। दीपावली पूजन करने से पहले दशों दिक्पालों की पूजा करना अनिवार्य माना जाता है,इस भेद को शायद ही कहीं प्रकट किया गया है ।

पूजा स्थान में साफ़ सफ़ाई और मनपसंद रंग रोगन करने के बाद सभी प्रयोग में ली जाने वाली वस्तुओं को यथा स्थान रखने के बाद तथा नकारात्मक प्रभाव पैदा करने वाले कारकों कचडा और बेकार की टूटी फ़ूटी वस्तुओं को निवास या व्यवसाय स्थान से दूर करने के बाद दस दिक्पाल की स्थापना की जाती है,विधि और नियम शास्त्रानुसार इस प्रकार से है:-

पूर्व में इन्द्र का आवाहन और स्थापन
पूर्व दिशा में स्थान को शुद्ध करने के बाद पीले चावल हाथ किसी दोने या किसी साफ़ बर्तम में रखकर केवल स्थान में छिडकते है और चावल को छिडकते समय यह मन्त्र उच्चारित करते है:-
ऊँ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्रँ हवे हवे सुहँ शूरमिन्द्रम। ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिन्द्रँ स्वस्ति नो मधवा धात्विन्द्र:॥
इन्द्रम सुरपतिश्रेष्ठं वज्रहस्तं महाबलम,आवाहवे यज्ञसिद्धयै शतयज्ञाधिपं प्रभुम॥
ऊँ भूभुर्व: स्व: इन्द्र ! इहागच्छ,इह तिष्ठ इन्द्राय नम: स्वाहा,इन्द्रमावाहयामि,स्थापयामि॥
इस मन्त्र से मानसिक रूप से पूर्व दिशा में इन्द्र का स्थापन किया जाता है,और इन्द्र के नाम से ही इन्द्र की शक्तियों का आभास होना स्वाभाविक है।
अग्नि दिशा में अग्नि का आवाहन और स्थापन
पूर्व और दक्षिण के बीच में जो स्थान होता है वह अग्नि की दिशा मानी जाती है। अग्नि का स्थान इसी दिशा में माना जाता है इसलिये ही घरों के अन्दर रसोई का और व्यापारिक स्थान में बिजली आदि की स्थापना इसी स्थान में की जाती है,इस स्थान में अग्नि के स्थापन के बाद ऊर्जा से सम्बन्धित कारक सुलभता से मिलते रहते है और शक्ति की कमी नही रहती है। सिन्दूर में चावलों को रंग कर इस स्थान में चावलो को इस मंत्र के पढते हुये छिडकना चाहिये:-
ऊँ अग्निं दूतं पुरो धधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ देवाँ आ साद्यादिह॥ त्रिपादं सप्तहस्तं च द्विमूर्धानं द्विनासिकाम। षण्नेत्रम च चतु:श्रोत्रमग्निमावाहयाम्यहम॥
ऊँ भूर्भुव: स्व: अग्ने ! इहागच्छ इह तिष्ठ अग्नये नम:,अग्निमावाहयामि,स्थापयामि॥
.दक्षिण दिशा में यम का आवाहन और स्थापना
ऊँ यमाय त्वाऽगिंरस्वते पितृमते स्वाहा ! स्वाहा धर्माय स्वाहा धर्म: पित्रे॥
महामहिषमारूढं दण्डहस्तं महाबलम। यज्ञसंरक्षणार्थाय यममावाहयाम्यहम॥
ऊँ भूर्भुव: स्व: यम ! इहागच्छ,इह तिष्ठ यमाय नम:,यममावाहयामि,स्थापयामि॥
नैऋत्य दिशा में निऋति का आवाहन और स्थापन
ऊँ असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य। अन्यमस्मदिच्छ सा त इत्या नमो देवि निऋते तुभ्यमस्तु॥
सर्व प्रेताधिपं देवं निऋतिं नील विग्रहम। आवाहये यज्ञसिद्धयै नरारूढं वरप्रदम॥
ऊँ भूर्भुव: स्व: निऋते ! इहागच्छ इह तिष्ठ निऋते नम:,निऋतिमावाहयामि,स्थापयामि॥
पश्चिम दिशा में वरुण का आवाहन और स्थापन
ऊँ तत्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशँ स मा न आयु: प्रमोषी:॥
शुद्ध स्फ़टिक संकाशं जलेशं यादसां पतिम। आवाहये प्रतीचीशं वरुणं सर्वकामदम॥
ऊँ भूभुर्व: स्व: वरुण ! इहागच्छ,इह तिष्ठ वरुणाय नम:,वरुणामावाहयामि स्थापयामि॥
वायव्य दिशा में वायु का आवाहन और स्थापन
ऊँ आ नो नियुद्भि: शतनीभिरध्वरँ सहस्त्रिणीभिरूप याहि यज्ञम। वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व यूयं पात स्वस्तभि: सदा न:॥
मनोजवं महातेजं सर्वतश्चारिणं शुभम। यज्ञसंरक्षणार्थाय वायुमावाहयाम्यहम॥
ऊँ भूभुर्व: स्व: वायो ! इहागच्छ,इह तिष्ठ वायवे नम:,वायुमावाहयामि,स्थापयामि॥
उत्तर दिशा में कुबेर का आवाहन और स्थापन
ऊँ कुविदंग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय। इहेहैषां कृणुहि भोजनानिये बर्हिषो नम उक्तिं यजन्ति॥
उपयामगृहीतोऽस्यशिवभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्ण॥
एष ते योन्स्तेजसे त्वा वीर्याय त्वा बलाय त्वा॥
आवाहयामि देवेशं धनदं यक्ष पूजितम। महाबलं दिव्यदेहं नरयानगतिं विभुम॥
ऊँ भूभुर्व: स्व: कुबेर ! इहागच्छ,इह तिष्ठ कुबेराय नम:,कुबेरमावाहयामि,स्थापयामि॥
ईशान दिशा में ईशान का आवाहन और स्थापन
ऊँ तमीशानं जगत स्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम।पूषा नो यथा वेदसामदद वृधे रक्षिता पायुरदब्ध: स्वस्तये॥
सर्वाधिपं महादेवं भूतानां पतिमव्ययम। आवाहये तमीशानं लोकानामभयप्रदम॥
ऊँ भूभुर्व: स्व: ईशान ! इहागच्छ,इह तिष्ठ,ईशानाय नम:,ईशानमावाहयामि,स्थापयामि॥
ऊर्ध्व दिशा (ईशान और पूर्व के मध्य) में ब्रह्मा का आवाहन और स्थापन
ऊँ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुर्तस्ताद्भि: सीमत: सुरुचो वेन आव:। स बुन्ध्या उपमा अस्य विष्ठा: सतश्च वि व:॥
पद्मयोनिं चतुर्मूर्तिं वेदगर्भं पितामहम। आवाहयामि ब्रह्माणं यज्ञ संसिद्धिहेतवे॥
ऊँ भूर्भुव: स्व: ब्रह्मन ! इहागच्छ,इहतिष्ठ ब्रह्मणे नम:,ब्रह्माणमावाहयामि,स्थापयामि।
अघदिशा (नैऋत्य पश्चिम के मध्य) अनन्त का आवाहन और स्थापन
ऊँ स्योना पृथवि नो भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा न: शर्म सप्रथा:।
अनन्तं सर्वनागानामधिपं विश्वरूपिणम। जगतां शान्तिकर्तारं मण्डले स्थापयाम्यहम॥
ऊँ भूर्भुव: स्व: अनन्त ! इहागच्छ,इह तिष्ठ अनन्ताय नम:,अनन्तमावाहयामि स्थापयामि॥

इस प्रकार से दक्षिण दिशा के अलावा अन्य सभी स्थानों पर पीले चावलों को छिडकते हुये उपरोक्त मंत्रो का उच्चारण करते हुये मानसिक रूप से सभी दिकपालों को स्थापित करने के बाद व्यवसाय या घर में अन्य पूजा पाठ को शुरु करना ठीक रहता है। इसके बाद जो भी कार्य किया जाता है,उपरोक्त दिक्पाल अपनी अपनी अद्रश्य शक्ति से व्यवसाय और घर के कारकों को भलीभांति सुरक्षा करने के लिये अपना बल प्रदान करते रहते है।
इस पूजा के बाद -"ऊँ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नम: स्वाहा" मंत्र का जाप दशों दिशाओं में फ़िर से करे,जिससे इनकी स्थापना हमेशा के लिये बनी रहे,मानसिक रूप से इन दिक्पालों से प्रीति के लिये "अनया पूजया इन्द्रादिदशदिक्पाला: प्रीयन्ताम,न मम" मंत्र का जाप करना चाहिये,जिससे किसी भी दिक्पाल के कमजोर होने से अन्य दिक्पाल आपके व्यवसाय और घर की सुरक्षा करते रहें,और समय समय पर विभिन्न कारणों से आपको विभिन्न तरीकों से बताते रहें।

1 comment:

  1. आप द्वारा प्रदत्त दश-दिक्पाल संबंधी लेख अत्यन्त ही उपयोगी रहा । कोटिश:धन्यवाद ! कृपया अग्नि एवं अग्निकलाएं, सूर्य - सूर्यकलाएं, सोम-सोमकलाएं, ब्रह्म-ब्रह्मकलाएं, रूद्र-रूद्रकलाएं,विष्णु-विष्णु कलाएं, ईश्वर-ईश्वरकलाएं,सदाशिव-सदाशिवकलाएं आदि की मण्डल स्थापना हेतु मन्त्र बतलाएं।

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