Tuesday, August 31, 2010

पिता की अल्पायु तो निज पुत्र की भी अल्पायु

कितनी ही कुंडलियों में देखा है कि पिता की अल्पायु और पिता जातक की कम उम्र में गुजर चुका है तो जातक के पुत्र की अल्पायु भी होती है। इस बात की सत्यता को परखने के लिये कई कारण और निवारण शास्त्रानुसार बताये गये है। लेकिन सबसे बडा कारण जो देखने को मिला उसके अन्दर शनि और राहु के बीच में सूर्य अगर विद्यमान है तो इस प्रकार का योग देखने को मिलता है। इस योग के मिलने पर और भी कारण जो मिलते है वे इस प्रकार से है:-
  • शनि राहु के बीच में सूर्य के होने से पिता और पुत्र की आयु कम होती है,इस योग को पापकर्तरी योग भी कहा जाता है.
  • अधिकतर मामलों में जातक के समय ही पिता के बारे में अनिष्ट होना भांप लिया जाता है,जैसे जातक के जन्म के पहले साल में ही पिता के साथ कोई अनहोनी हो चुकी होती है.अगर इस प्रकार की अनहोनी हो चुकी है तो घर में पूजा में दुर्गा पाठ का निरंतर पाठ करना जरूरी हो जाता है.
  • पितामह इस युति में बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्ति होते है उनकी प्रसंसा किसी भी मामले में आसपास के क्षेत्रों में सुनी जा सकती है.
  • जातक को फ़िल्म में फ़ोटोग्राफ़ी में सजावटी कामों में और प्रकाश व्यवस्था का अच्छा ज्ञान होता है.
  • इस योग के गोचर में आने से जातक के द्वारा किये जाने वाले काम से छुटकारा भी मिलता है.
  • पिता के साधारण काम ही होते है और अधिकतर मामलो में नौकरी करना ही पाया जाता है.
  • यह कारण एक पांच नौ भावों में युति मिलने से भी माना जा सकता है.
  • यह युति अगर दो छ: दस भावों में मिलती है तो जातक के कुटुम्ब के अन्दर यह कारण मिलते है,यहां जातक के सरकार से सम्बन्धित भौतिक सम्पत्ति और सरकारी पद या परिवार के अन्दर किसी सरकार के काम करने वाले व्यक्ति के लिये फ़लकथन कहा जायेगा.
  • इन भावों युति के लिये जातक या जातिका को चेहरे पर लगाये जाने वाले प्रसाधन के साधनो का अधिक प्रयोग करना भी माना जाता है.
  • कर्जा दुशमनी बीमारी के कामो का पालना और सरकारी कानूनो का मखौल उडाना भी माना जाता है.
  • सरकार के काम के विरुद्ध कोई न कोई हरकत करना कानूनी मान्यताओं को रद्द करना और उच्चपदासीन व्यकि को न्याय की प्रक्रिया से बेइज्जत करना भी माना जाता है.

Monday, August 30, 2010

दस महाविद्यायें

शक्ति ग्रंथों में दस महाविद्याओं का वर्णन मिलता है,लेकिन जन श्रुति के अनुसार इन विद्याओं का रूप अपने अपने अनुसार बताया जाता है,यह दस विद्या क्या है और किस कारण से इन विद्याओं का रूप संसार में वर्णित है,यह दस विद्यायें ही क्यों है इसके अलावा और क्यों नही इससे कम भी होनी चाहिये थी,आदि बातें जनमानस के अन्दर अपना अपना रूप दिखाकर भ्रमित करती है।
विद्या का अर्थ
आगम का आगमन निगम से हुआ है,निगम का नाम सूर्य है और आगम का नाम शनि गुरु मंगल पृथ्वी चन्द्रमा शुक्र बुध है। आगम के सभी सिद्धान्त निगम के सिद्धान्तो पर निर्भर है। जैसे निगमाचार्यों ने सैषा त्रयी विद्या इत्यादि रूप से विद्या शब्द प्रयुक्त किया है,उसी तरह से आचार्योण ने विद्यासि सा भगवती इत्यादि रूप से आगम के लिये भी विद्या शब्द का प्रयोग किया है। इस विवेचना में विद्या के शब्द का अर्थ बताने की क्रिया है।
    निगम में त्रयं ब्रह्म त्रयी विद्या त्रयी वेदा: इत्यादि रूप से ब्रह्म विद्या वेद तीनों को अभिन्नार्थक माना है। परमार्थ द्रष्टि से तीनों अभिन्न है । विश्व की नजर में भी तीनो अलग अलग है। शक्ति तत्व विद्या क्या महाविद्या से शब्द से लिया गया है । इसका उत्तर इन्ही तीनों के स्वरूप ज्ञान पर निर्भर है। अनन्त ज्ञानघन क्रियाघन अर्थघन तत्वविशेष का नाम ही अक्षर है ब्रह्म है। वह सर्वज्ञान मय है सर्वक्रियामय है सर्वार्थमय है। दूसरे शब्दों में वह अक्षरतत्व मन प्राण वांगमय है जैसे क्षर पुरुष का आलम्बन अक्षर पुरुष्है,इसलिये सबका आलम्बन अक्षरपुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध अव्यय पुरुष है। वह स्वयं ज्ञान क्रिया अर्थशक्ति रूप है। अव्यय की ज्ञानशक्ति को महसूस करने वाला प्राण है। अर्थ शक्ति का महसूस करने वाला वाक यानी वाणी है। इन तीन कलाओं के अतिरिक्त आनन्द विज्ञान नाम की दो कलायें और हैं। इन पांचो कलाओं में पांचवी वाककला उपनिषदों में अन्नब्रह्म नाम से प्रसिद्ध है। तैत्तिरेय उपनिषद में इन पांचों आनन्द विज्ञान मन प्राण अन्न ब्रह्माकोषों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आनन्दादि पुरुष की पांच कलायें है,दूसरे शब्दों में वह अव्यय पंचकल है। पंचकलात्मक वह अव्यय पुरुष स्वयं शक्ति रूप है। सामान्ये सामन्याभाव: के अनुसार आनन्द मे आनन्द नही। विज्ञान में विज्ञान नही। मन में मन नही। प्राण में प्राण नही। वाक में वाक नही । जिसके अन्दर प्राण नही है और जिसका मन भी नही है तो क्रिया नही हो सकती है,अव्यय पुरुष न करता है,न लिप्त होता है,इसी भाव का निरूपण करती हुयी श्रुति कहती है-
॥न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तस्मश्चाभ्यधिकश्व द्रश्यते,पराभ्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥
इन्ही कारणों से हम अव्यय पुरुश को निर्धर्मक मानने के लिये तैयार है। अव्यय पुरुष है।पुरुष चेतन है,चिदात्मा है,ज्ञानमूर्तिहै,अतएव निष्क्रिय भी है। इसलिये क्रिया सापेक्ष सक्रिय विश्व की निर्माण प्रक्रिया से बहिर्भूत है,सृष्टि संसृष्टि है। संसर्ग व्यापार है,व्यापार क्रिया है,इसका उसमें अभाव है,अतएव वह अकर्ता है।अतएव पंचकलाव्य पुरुष प्राणरूप से क्रियाशून्य नही कहा जा सकता है। परन्तु कोरी क्रिया कुछ कर भी नही सकती है। क्रिया क्रियावान कर सकता है। अव्यय क्रियावान नही क्रियास्वरूप है। क्रियावान है वही पूर्वोक्त अक्षर पुरुष। यह अक्षर पुरुष ही अव्यक्त परा प्रकृति परमब्रह्म आदि नामों से प्रसिद्ध है। वह पुरुष इस प्रकृति के साथ समन्वित होता है। तत्तु समन्वयात (शारीरिकदर्शन व्याससूत्र) के अनुसार इस प्रकृति पुरुष के समनवय से ही विश्व रचना होती है। इस समन्वय से अव्यय की शक्तियां अक्षर में संक्रांत होजाती है। उसकी शक्तियों से अक्षर शक्तिमान बन जाता है। अतएव हम अक्षर को आनन्दवान विज्ञानवान मनस्वी क्रियावान अर्थवान मानने के लिये तैयार हैं। अक्षर शक्तिमान है,सक्रिय है एक बात अरु पूर्वोक्त अव्यय कलाओं में आनन्द प्रसिद्ध है,विज्ञान चित है मन प्राण वाक की समिष्ट सत है। सत चित आनन्द की समष्टि ही सच्चिदानन्द ब्रह्म है। अक्षर तीनों से युक्त है अतएव हम इसे अवश्य ही आनन्दवान विज्ञानवान कह स्कते है। आनन्दविज्ञान मुक्तिशाक्षी अव्यय है,प्रानवाक सृष्टि साक्षी अव्यय है,मद्यपतित उभयात्मकं मन: के अनुसार दोनों ओर जाता है,मुक्ति का सम्बन्ध आनन्द विज्ञान मनसे है,सृष्टि का सम्बन्ध मन प्राण वाक से है,अतएव सृष्टि साक्षी आत्मा को स वा एष आत्मा वांगमय: प्राणमयो मनोमय: इत्यादि रूप से मन: प्राणवांगमय ही बतलाया गया है। सृष्टिसाक्षी अव्यय में हमने ज्ञानघन मन क्रियाघन प्राण अर्थघन वाक की सत्ता बतलायी है,इन तीनों में ज्ञान कला का विकास स्वयं अव्यय पुरुष है। उसमें इसी कला की प्रधानता है,क्रिया का विकास अक्षर पुरुष है,अर्थ का विकास क्षर पुरुष है,अर्थप्रधान क्षर पुरुष भी निष्क्रिय है। अक्षर पुरुष एक मात्र क्रियाशील है। क्रिर्या करना एक मात्र अक्षर का ही धर्म है,अत: हम तीनों पुरुषों में से एक मात्र अक्षर को ही सृष्टि कर्ता मान सकते है। अव्यक्त अक्षर प्रकृति ही विश्व का प्रभव प्रतिष्ठा परायण है,इसी विज्ञान को लक्ष्य मे रखकर श्रुति कहती है-
॥ यदा सुदीप्तात पावकाद्विस्फ़ुलिंगा: सह्स्त्रश: प्रभवन्ते सरूपा:,तथाक्षराद्विविधा: सोम्य भावा: प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति ॥ (मुण्डक.२/१/१)
॥अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे,रात्यागमे प्रत्नीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥ अव्यक्तादीन भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत,अव्यकनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ (गीता २/२८)
माना जाता है  कि प्रजापति यानी कुम्हार जमीन पर बैठकर समुदाय रूप से सर्वथा गतिशून्य अवयव रूप से सर्वथा गतिशील चक्र पर मिट्टी रखकर घडे का निर्माण किया करता है,इसी प्रकार अक्षर रूपी प्रजापति कुम्हार आनन्द विज्ञान मनोघन मुक्ति साक्षी अव्ययरूप धरातल पर बैठकर मन: प्राण वाग्घन सृष्टिसाक्षी अव्ययरूप चक्र पर क्षररूप मिट्टी से उत्तम त्रिलोकी रूप घट का निर्माण किया करता है।

Thursday, August 26, 2010

अहंकार से सम्बन्ध विच्छेद

वह जमाना चला गया जब बहुयें ब्यालू किया करती थी,इस कहावत का मतलब होता है कि घर की बहू का हक केवल दोपहर के भोजन तक ही सीमित है,जब ब्यालू नही करने दी जायेगी तो कलेऊ का भी कोई आस्तित्व नही है। यह बात अक्सर पुराने जमाने की सासें अपने अपने अनुसार किया करती थी,लेकिन आज के जमाने में यह बात बिलकुल पलट गयी है,अब कहा जा सकता है "वह जमाना चला गया जब सासें ब्यालू किया करती थीं",शादी के बाद कितने ही रिस्ते इस अहंकार की बली चढ गये है,और जो कुछ चल भी रहे है वे या तो परिवार की मर्यादा को रख कर चल रहे है या रिस्ते के नाम पर पक्ष और प्रतिपक्ष के परिवार रिस्तों को ढो रहे है। पति और पत्नी की विवाह के बाद की औकात कितनी रह गयी है यह अगर किसी पारिवारिक न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालय में जाकर देखा जाये तो बहुत कुछ देखने को मिल जायेगा। पुरुष अहम कितना है इस बात के लिये हमने कितनी ही लडकियों की व्यथायें सुनी,वे अपने घरों को छोड कर न्याय की आशा में अपने अपने माता पिता के पास बैठी है,अगर माता पिता समर्थ है तो उनके भरण पोषण को कर रहे है और अगर किसी भी तरह से भरण पोषण नही कर पा रहे हैं तो लडकियां खुद ही किसी छोटे या बडे पद पर आसीन होकर अपना खर्च वहन कर रही है। शादी के बाद का जो माहौल घर के अन्दर पैदा होता है वह केवल अहम को लेकर होता है,जब दो परिवार आपस में जुडते है तो कुछ अच्छा और कुछ बुरा अनुभव तो होता ही है। अक्सर समाचार पत्रों से या वैवाहिक साइटों से जो रिस्ते बनाये जा रहे है वे किसी प्रकार से खानपान रहन सहन और भाषा से जुडे नही होते है,उनके अन्दर परिवार की कहानी मनगढंत होती है या फ़िर जिस परिवेश में वर और वधू रहे होते है उस परिवेश की भिन्नता भी अपना कारण बनाती है। बोली जाने वाली भाषा अलग होती है और देखने वाली समझ अलग होती है,किसी की तस्वीर और शिक्षा को देखकर अगर शादी की बात की जाती है और रिस्ता फ़ाइनल भी हो जाता है तो जब उस वर या वधू के रिस्तेदार आपस में मिलते है और जब कोई कार्यक्रम में शामिल होना पडता है तो अक्सर समाज की खामियां भी देखने को मिलती है,जैसे खानपान का तमाशा,रहने के स्थान का तमाशा दिखावे का तमाशा आदि करने से वर और वधू के परिवारों में किसी न किसी बात पर तकरार हो ही जाती है। और जब बहू घर आती है तो बहू पर किये गये व्यवहार के बारे में आक्षेप विक्षेप दिये जाते है,जबकि बहू का खुद का दिमाग असंतुलन में होता है वह अपने परिवार को छोड रही होती है और दूसरे परिवार में जा रही होती है,किसी अलग माहौल में जाने पर पहले उस परिवार के सदस्यों के बारे में समझना पडता है फ़िर उस परिवार के माहौल के अनुसार चलने की कोशिश की जाती है,समझदार तो कोशिश करने पर सफ़ल हो जाती है लेकिन जिनके अन्दर माता पिता का भाई का या अन्य किसी प्रकार का जैसे कि नौकरी करना आदि होता है तो वह अहम के कारण एक दम ही अपने व्यवहार को परिवर्तित कर देती है और परिवार से दूर होकर अपने को प्रताणित शो करने लगती है,परिवार के साथ उनका साथ कानून भी देता है,उसके बाद चलती है कानूनी लडाई जो अधिकतर काफ़ी समय तक चलती है,दोनो पक्ष एक दूसरे को प्रताणित करने के लिये अलग अलग धाराओं और कई प्रकार के पारिवारिक अपघात करने से नही चूकते,जो सम्बन्ध धार्मिक रूप से चलना था,पति पत्नी को सौहार्द पूर्वक रहकर अपने जीवन की मुख्य रास्ता से जुडना था,वह सब एक क्षण में समाप्त हो चुका होता है।

Tuesday, August 24, 2010

गृह क्लेश कारण और निवारण

पूर्वजों से सुनता आया हूँ कि - " जिनके पशु प्यासे बंधे,त्रियां करें क्लेश,उनकी रक्षा ना करें ब्रह्मा विष्णु महेश", अर्थात जिन व्यक्तियों ने पशुओं को पाला हुआ है और उनके पानी भोजन की व्यवस्था नही कर रहे है,और जिन व्यक्तियों के घर में स्त्रियां या स्त्री क्लेश कर रही है,उनकी रक्षा भगवान ब्रह्मा विष्णु और महेश् भी नही कर सकते है। उन व्यक्तियों को बरबाद होना ही है,वह चाहे धन से बरबाद हों या तन से या समाज से अथवा इन तीनो से उनकी बरबादी को कोई रोक नही सकता है। स्त्री का क्लेश केवल एक ही कारण से होता है,वह कारण होता है "टोटा",यानी घर की लडाई की जड टोटा,इस टोटे को समझने के लिये थोडा विस्तार से जाना पडेगा।
"बुद्धि बाहुबल खूब है,भ्रम में जायें भूल।
घर की चिन्ता न करें उचित क्लेश का मूल॥
इसका मतलब साफ़ है,काफ़ी शिक्षा प्राप्त की है,और ताकत भी खूब है,लेकिन भ्रम दिमाग में रहा कि घर को कोई तो संभाल ही लेगा,वक्त पर घर में कोई आफ़त हो गयी,खुद को पता नही है तो घर में क्लेश तो होना ही है। बुजुर्ग की सलाह भी घर के लिये लाभकारी होती है,अक्सर आज के युवा वर्ग में बुजुर्ग की सलाह लेना नही आता है,वह सोचता है कि घर के मामले भी शिक्षा और पढाई के मामलों की तरह से होंगे,लेकिन घर की स्थिति और शिक्षा तथा कार्य की स्थिति में बहुत अन्तर है। घर में क्लेश छोटी सी बात पर भी हो सकता है और घर में बडा कारण होने पर भी क्लेश नही होता है,हर क्लेश का कारण बुद्धि में भ्रम भर जाना होता है। भ्रम के बारे में कहा है:-
"ताकत नही शरीर में चले न घर में जोर।
पास पडौसी हंसत है मचो रहे जब शोर॥"
मतलब साफ़ है कि शरीर में जोर है नही और कार्य करने में दम निकलती है। फ़िर घर के अन्दर क्लेश तो होना ही है और अगर केल्श होता है तो शोर भी होगा और उस शोर को सुनकर पडौसी भी कान लगाकर सुनते है। और जब बातें अजीब सी होती है तो हंसी तो होनी ही है.