शक्ति ग्रंथों में दस महाविद्याओं का वर्णन मिलता है,लेकिन जन श्रुति के अनुसार इन विद्याओं का रूप अपने अपने अनुसार बताया जाता है,यह दस विद्या क्या है और किस कारण से इन विद्याओं का रूप संसार में वर्णित है,यह दस विद्यायें ही क्यों है इसके अलावा और क्यों नही इससे कम भी होनी चाहिये थी,आदि बातें जनमानस के अन्दर अपना अपना रूप दिखाकर भ्रमित करती है।
विद्या का अर्थ
आगम का आगमन निगम से हुआ है,निगम का नाम सूर्य है और आगम का नाम शनि गुरु मंगल पृथ्वी चन्द्रमा शुक्र बुध है। आगम के सभी सिद्धान्त निगम के सिद्धान्तो पर निर्भर है। जैसे निगमाचार्यों ने सैषा त्रयी विद्या इत्यादि रूप से विद्या शब्द प्रयुक्त किया है,उसी तरह से आचार्योण ने विद्यासि सा भगवती इत्यादि रूप से आगम के लिये भी विद्या शब्द का प्रयोग किया है। इस विवेचना में विद्या के शब्द का अर्थ बताने की क्रिया है।
निगम में त्रयं ब्रह्म त्रयी विद्या त्रयी वेदा: इत्यादि रूप से ब्रह्म विद्या वेद तीनों को अभिन्नार्थक माना है। परमार्थ द्रष्टि से तीनों अभिन्न है । विश्व की नजर में भी तीनो अलग अलग है। शक्ति तत्व विद्या क्या महाविद्या से शब्द से लिया गया है । इसका उत्तर इन्ही तीनों के स्वरूप ज्ञान पर निर्भर है। अनन्त ज्ञानघन क्रियाघन अर्थघन तत्वविशेष का नाम ही अक्षर है ब्रह्म है। वह सर्वज्ञान मय है सर्वक्रियामय है सर्वार्थमय है। दूसरे शब्दों में वह अक्षरतत्व मन प्राण वांगमय है जैसे क्षर पुरुष का आलम्बन अक्षर पुरुष्है,इसलिये सबका आलम्बन अक्षरपुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध अव्यय पुरुष है। वह स्वयं ज्ञान क्रिया अर्थशक्ति रूप है। अव्यय की ज्ञानशक्ति को महसूस करने वाला प्राण है। अर्थ शक्ति का महसूस करने वाला वाक यानी वाणी है। इन तीन कलाओं के अतिरिक्त आनन्द विज्ञान नाम की दो कलायें और हैं। इन पांचो कलाओं में पांचवी वाककला उपनिषदों में अन्नब्रह्म नाम से प्रसिद्ध है। तैत्तिरेय उपनिषद में इन पांचों आनन्द विज्ञान मन प्राण अन्न ब्रह्माकोषों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आनन्दादि पुरुष की पांच कलायें है,दूसरे शब्दों में वह अव्यय पंचकल है। पंचकलात्मक वह अव्यय पुरुष स्वयं शक्ति रूप है। सामान्ये सामन्याभाव: के अनुसार आनन्द मे आनन्द नही। विज्ञान में विज्ञान नही। मन में मन नही। प्राण में प्राण नही। वाक में वाक नही । जिसके अन्दर प्राण नही है और जिसका मन भी नही है तो क्रिया नही हो सकती है,अव्यय पुरुष न करता है,न लिप्त होता है,इसी भाव का निरूपण करती हुयी श्रुति कहती है-
॥न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तस्मश्चाभ्यधिकश्व द्रश्यते,पराभ्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥
इन्ही कारणों से हम अव्यय पुरुश को निर्धर्मक मानने के लिये तैयार है। अव्यय पुरुष है।पुरुष चेतन है,चिदात्मा है,ज्ञानमूर्तिहै,अतएव निष्क्रिय भी है। इसलिये क्रिया सापेक्ष सक्रिय विश्व की निर्माण प्रक्रिया से बहिर्भूत है,सृष्टि संसृष्टि है। संसर्ग व्यापार है,व्यापार क्रिया है,इसका उसमें अभाव है,अतएव वह अकर्ता है।अतएव पंचकलाव्य पुरुष प्राणरूप से क्रियाशून्य नही कहा जा सकता है। परन्तु कोरी क्रिया कुछ कर भी नही सकती है। क्रिया क्रियावान कर सकता है। अव्यय क्रियावान नही क्रियास्वरूप है। क्रियावान है वही पूर्वोक्त अक्षर पुरुष। यह अक्षर पुरुष ही अव्यक्त परा प्रकृति परमब्रह्म आदि नामों से प्रसिद्ध है। वह पुरुष इस प्रकृति के साथ समन्वित होता है। तत्तु समन्वयात (शारीरिकदर्शन व्याससूत्र) के अनुसार इस प्रकृति पुरुष के समनवय से ही विश्व रचना होती है। इस समन्वय से अव्यय की शक्तियां अक्षर में संक्रांत होजाती है। उसकी शक्तियों से अक्षर शक्तिमान बन जाता है। अतएव हम अक्षर को आनन्दवान विज्ञानवान मनस्वी क्रियावान अर्थवान मानने के लिये तैयार हैं। अक्षर शक्तिमान है,सक्रिय है एक बात अरु पूर्वोक्त अव्यय कलाओं में आनन्द प्रसिद्ध है,विज्ञान चित है मन प्राण वाक की समिष्ट सत है। सत चित आनन्द की समष्टि ही सच्चिदानन्द ब्रह्म है। अक्षर तीनों से युक्त है अतएव हम इसे अवश्य ही आनन्दवान विज्ञानवान कह स्कते है। आनन्दविज्ञान मुक्तिशाक्षी अव्यय है,प्रानवाक सृष्टि साक्षी अव्यय है,मद्यपतित उभयात्मकं मन: के अनुसार दोनों ओर जाता है,मुक्ति का सम्बन्ध आनन्द विज्ञान मनसे है,सृष्टि का सम्बन्ध मन प्राण वाक से है,अतएव सृष्टि साक्षी आत्मा को स वा एष आत्मा वांगमय: प्राणमयो मनोमय: इत्यादि रूप से मन: प्राणवांगमय ही बतलाया गया है। सृष्टिसाक्षी अव्यय में हमने ज्ञानघन मन क्रियाघन प्राण अर्थघन वाक की सत्ता बतलायी है,इन तीनों में ज्ञान कला का विकास स्वयं अव्यय पुरुष है। उसमें इसी कला की प्रधानता है,क्रिया का विकास अक्षर पुरुष है,अर्थ का विकास क्षर पुरुष है,अर्थप्रधान क्षर पुरुष भी निष्क्रिय है। अक्षर पुरुष एक मात्र क्रियाशील है। क्रिर्या करना एक मात्र अक्षर का ही धर्म है,अत: हम तीनों पुरुषों में से एक मात्र अक्षर को ही सृष्टि कर्ता मान सकते है। अव्यक्त अक्षर प्रकृति ही विश्व का प्रभव प्रतिष्ठा परायण है,इसी विज्ञान को लक्ष्य मे रखकर श्रुति कहती है-
॥ यदा सुदीप्तात पावकाद्विस्फ़ुलिंगा: सह्स्त्रश: प्रभवन्ते सरूपा:,तथाक्षराद्विविधा: सोम्य भावा: प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति ॥ (मुण्डक.२/१/१)
॥अव्यक्ताद्वयक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे,रात्यागमे प्रत्नीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥ अव्यक्तादीन भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत,अव्यकनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥ (गीता २/२८)
माना जाता है कि प्रजापति यानी कुम्हार जमीन पर बैठकर समुदाय रूप से सर्वथा गतिशून्य अवयव रूप से सर्वथा गतिशील चक्र पर मिट्टी रखकर घडे का निर्माण किया करता है,इसी प्रकार अक्षर रूपी प्रजापति कुम्हार आनन्द विज्ञान मनोघन मुक्ति साक्षी अव्ययरूप धरातल पर बैठकर मन: प्राण वाग्घन सृष्टिसाक्षी अव्ययरूप चक्र पर क्षररूप मिट्टी से उत्तम त्रिलोकी रूप घट का निर्माण किया करता है।
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