Wednesday, March 10, 2010

तंत्र में अपरजिता

अपराजिता बंगाल या पानी वाले इलाकों में एक बेल की शक्ल में पायी जाती है,इसका पत्ता आगे से चौडा और पीछे से सिकुडा रहता है,इसके अन्दर आने वाले फ़ूल स्त्री की योनि की तरह से होते है,इसलिये इसे ’भगपुष्पी’और ’योनिपुष्पी’ का नाम दिया गया है। इसका उपयोग काली पूजा और नवदुर्गा पूजा में विशेषरूप में किया जाता है,तथा बंगाल में यह नीले और सफ़ेद दो रंगों मिलती है जहां काली का स्थान बनाया जाता है वहां पर इसकी बेल को जरूर लगाया जाता है। गर्मी के कुछ समय के अलावा हर समय इसकी बेल फ़ूलों से सुसज्जित रहती है। वेदों में इसके नाम ’विष्णुकान्ता" सफ़ेद फ़ूलों वाली बेल के लिये और ’कृष्णकान्ता’ नीले फ़ूलों वाली बेल को कहा जाता है,इस बेल के विभिन्न प्रयोग तंत्र-शास्त्रों में बताये गये है,जैसे किसी स्त्री को प्रसव में बहुत वेदना है तो इसकी बेल को प्रसविणी की कमर में लपेट दिया जाये तो बिना बेदना के आसानी से प्रसव हो जाता है। इसी का प्रयोग जहरीले डंस देने वाले कीटों और पतंगो के लिये भी किया जाता है,जैसे बर्र ततैया मधुमक्खी शरीर के किसी अंग में काट ले तो शरीर के दूसरी तरफ़ उसी अंग में अपराजिता के पत्ते डाल कर पानी से धोने पर कुछ ही देर में आराम हो जाता है,उसी प्रकार से अगर किसी को बिच्छू ने काट लिया हो तो इसके पत्ते काटे हुये स्थान से ऊपर से नीचे की तरफ़ रगडे जायें और जिस अंग में काटा है उसी तरफ़ के हाथ में अपराजिता के पत्ते दबा दिये जायें तो पांच से दस मिनट में पीडा समाप्त हो जाती है। भूत बाधा या शरीर में भारीपन आजाने के बाद अगर नीली वाली अपराजिता की जड को नीले रंग के कपडे में बांध कर रोगी के गले में बांध दिया जाये तो भूत बाधा या शरीर का भारीपन समाप्त हो जाता है।  जल्दी लाभ के लिये इसके पत्तों का रस निकाल कर उसे साफ़ करके नाक में डाला जाये तो भी फ़ायदा होता है,नीम के पत्तों के साथ इसके पत्ते जलाकर घर में धुंआ दिया जाये तो घर की बाधा से शांति आती है। इसका प्रयोग पुराने जमाने की दाइयां भी करती थी,वे नीली अपराजिता की जड को मासिक धर्म के बाद सन्तान हीन स्त्रियों को दूध में पीसकर एक तोला के आसपास पिलाती थीं और दो या तीन महिने पिलाने के बाद ही स्त्री गर्भ धारण कर लेती थी। सफ़ेद अपराजिता को पत्ती जड सहित बकरी के मूत्र में पीस कर और गोली बनाकर सुखाकर पुराने जमाने में पशुओं के गले में बांध दी जाती थी,जिससे मान्यता थी कि पशुओं को बीमारी नही होती थी और उन्हे कोई चुराता भी नही था। इसका प्रयोग वशीकरण में भी किया जाता है।

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