Monday, March 15, 2010

माँ कामाख्या और तंत्र

माँ कामाख्या के मंदिर के तंत्र को जानने के लिये पहले शिवलिंग को सकारात्मक और माता के मंदिर की बनावट को नकारात्मक रूप से देखना पडेगा। माता के मंदिर के अन्दर जाने पर जो द्रश्य सामने होता है वह इस प्रकार का होता है जैसे हम शिवलिंग के अन्दर प्रवेश कर गये हों।मंदिर की बनावट को वास्तु अनुसार बनाकर अन्दर कोई सफ़ेदी या रंग का प्रयोग नही किया गया है,अक्सर लोगों के मन में भ्रम होगा कि अन्दर कोई रंग या सफ़ेदी नही करने का उद्देश्य मन्दिर के प्रबन्धकों का यह रहा होगा कि कोई मन्दिर के अन्दर माँ की फ़ोटो नही ले ले,और अक्सर फ़ोटो उन्ही स्थानों की मिलती है,जहां कोई रूप सकारात्मक रूप से दिखाई देता है,लेकिन जो नकारात्मक रूप में शक्ति होती है उसे सकारात्मक रूप में देखने के लिये किसी भौतिक चीज को देखने की जरूरत नही पडती है,जैसे ही मन्दिर के अन्दर प्रवेश करते है अचानक दीपक की धीमी लौ के द्वारा जो रूप सामने आता है वह माता का साक्षात रूप ही माना जा सकता है। घनघोर अन्धेरा और उस अन्धेरे के अन्दर जो द्रश्य सामने होता है वह अगर आंखों को बन्द करने के बाद देखा जाये तो वही द्रश्य सामने होता है,इसे अंजवाने के लिये मन्दिर में जब सबसे नीचे जाकर माता के स्थान पर केवल बहते हुये पानी को हाथ से स्पर्श किया जाये तो उस समय आंखों को बन्द करते ही एक विचित्र सुनहली आभा लिये द्रश्यमान भगवती का चित्र एक क्षण के लिये आता है और गायब हो जाता है,वही दश्य मन में बसाने वाला होता है। अक्सर इस मन्दिर को तांत्रिक साधना का स्थान बताया गया है और कहा जाता है कि यहाँ पर मनोवांछित साधनायें पूरी होती है,लेकिन माता की साधना के लिये षोडाक्षरी मंत्र को ह्रदयंगम करने के बाद ही सम्भव है। षोशाक्षरी के लिये भी कहा गया है कि "राज्यं देहि,सिरं देहि,ना देहि षोडाक्षरी",राजपाट देदो,सिर दे दो लेकिन षोडाक्षरी मत दो,षोडाक्षरी के रहने पर राज्य और जीवन वापस मिल जायेगा लेकिन षोडाक्षरी जाने के बाद कुछ नही मिलेगा।
माता के दर्शन और स्पर्श के लिये अन्दर जाने से पहले दरवाजे के ठीक सामने बलि स्थान है,इस बलि स्थान पर कहा जाता है कि भूतकाल में यहां मनुष्यों की बलि दी जाती थी,आजकल यहाँ इस बलि स्थान के ठीक पीछे बकरों की बलि दी जाती है,तंत्र में जो बलि देने का रिवाज भूतडामर तंत्र में कहा गया है उसके अनुसार किसी जीव की बलि देना प्रकृति के अनुसार नही है। तंत्र शास्त्रों में लिखे गये बलि कारकों में उन कारकों का वर्णन किया गया है जो मानसिक धारणा से जुडॆ है। इस बलि स्थान का जो मन्दिर में स्थान बनाया गया है वह प्राचीन भवन निर्माण पद्धति से बिलकुल दक्षिण-पश्चिम कोने में बनाया गया है। प्रवेश का स्थान दक्षिण से होने के कारण जो सकारात्मक इनर्जी का मुख्य स्तोत्र है वह उत्तर की तरफ़ नीचे उतरने के लिये माना जाता है,बलि देने का मतलब यह नही होता है कि कोई मान्यता से बलि दी जाती है,यह एक कुप्रथा है और इसके पीछे जो भेद छुपा है उसके अनुसार मनुष्य के अन्दर जो लोभ मोह लालच कपट कष्ट देने की आदतें है उनकी बलि देने का रिवाज है,जैसे बकरे की बलि देने का जो कारण बताया गया है वह केवल अहम "मैं" को मारने का कारण है,लेकिन लोगों ने अपने निजी स्वार्थ को समझा नही और मैं (अहम) को न काटकर मैं मैं कहने वाले जानवर को ही काट डाला,धर्म स्थान का महत्व अघोर सिद्धि के लिये कई नही माना जाना चाहिये,जीव जीव का आहार है जरूर लेकिन बर्बरता और बिना किसी जीव को कष्ट दिये जब भोजन को धरती माता उपलब्ध करवाती है तो क्या जरूरी है कि अपने स्वार्थ और जीभ के स्वाद के लिये बलि दी जाये। मैं को काटने के लिये पहले अहम को काट दिया तो सभी सिद्धियां अपने आप सामने प्रस्तुत हो जायेंगी। माँ के दर्शन करने से पहले इसी मैं को काटने का ध्येय बताया था।
इस मन्दिर को बनाकर शैव और शक्ति के उपासकों का मुख्य उद्देश्य विपरीत कारकों से सिद्धियों को प्राप्त करना और माना जा सकता है,वास्तु का मुख्य रूप जो इस मन्दिर से मिलता है उसके अनुसार आसुरी शक्तियां जिनका निवास दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) के कोने से मिलता है उसको भी दर्शाने का है,मुख्य मंदिर जिसके नीचे भौतिक तत्व विहीन शिव लिंग  (केवल वायु निर्मित शिवलिंग) है,को समझने के लिये यह भी जाना जाता है कि जिन मकानों में उत्तर की तरफ़ अधिक ऊंचा और दक्षिण की तरफ़ अधिक नीचा होता है,अथवा उत्तर से दक्षिण की तरफ़ ढलान बनाया जाता है उन घरों के लोग केवल अघोर साधना की तरफ़ ही उन्मुक्त भाव से चले जाते है,व्यभिचार जुआ शराब मारकाट आदि बातें उन्ही घरों में मिलती है,लेकिन जब यह बात धार्मिक स्थानों में आती है तो जो भी धार्मिक स्थान दक्षिण मुखी होते है अथवा उनका उत्तर का भाग ऊंचा होता है वहां पर जो व्यक्ति के दिमाग में आसुरी वृत्तियां भरी होती है,उनका निराकरण भी इसी प्रकार के स्थानों में होता है। जैसे कि किसी भी अस्पताल को देखिये,जो दक्षिण मुखी होगा उसकी प्रसिद्धि और इलाज बहुत अच्छा होगा,और जो अन्य दिशाओं में अपनी मुखाकृति बनायें होंगे वहां अन्य प्रकार के तत्वों का विकास मिलता होगा,यही बात भोजन और इन्जीनियरिंग वाले मामलों में जानी जाती है। माता कामाख्या के और ऊपर भुवनेश्वरी माता का मन्दिर है,उस मंदिर का निर्माण भी इसी तरीके से किया जाता है लेकिन यह प्रकृति की कल्पना ही कही जाये कि जितनी भीड इस कामाख्या के मंदिर में होती है उतनी भुवनेश्वरी माता के मन्दिर में नही होती है। जो व्यक्ति अपनी कामना की सिद्धि के लिये आता है वह केवल कामाख्या को ही जानता है लेकिन जो कामनाओं की सिद्धि से भी ऊपर चला गया है वह ही भुवनेश्वरी माता के दर्शन और परसन कर पाता है। यही बात मैने खुद देखी जहां कामाख्या में पुजारी धन की मांग करते है वहीं मैने अपने आप पूजा करने के बाद भुवनेश्वरी माता के मंदिर में पुजारी को दक्षिणा देनी चाही तो उस पुजारी ने यह कह कर मना कर दिया कि "जब मैनें आपकी कोई पूजा ही नही की है तो मै दक्षिणा लेने का अधिकारी नही होता",जब मैने अधिक हठ की तो उसने कोई तर्क नही करके अपने निवास के कपाट बंद कर लिये।

11 comments:

  1. धर्म और कर्म ही मानव को महान बनाते है.तुम्हारा सन्लेख अच्छभै. लगा ,लगे रहो मुन्न्ना भाई

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  2. इसी कामाख्या पहाड पर एक लम्बा नीबू मिलता है,जिसे आयुर्वेद में मीठा "जम्भीरी नीबू" कहा जाता है,इसकी चाय पीने से जो शरीर लकवा आदि से ग्रसित होता है,अथवा जिस शरीर की नशें काम करना बन्द कर देती है उसमें बहुत फ़ायदा तुरत होता देखा गया है। थकावट का तो पता ही नही चलता है,कामाख्या मन्दिर से भुवनेश्वरी तक का पैदल सफ़र हम तीनो ने किया था,साथ मे बयासी साल की बुआ-नानी भी थी,दर्शन करने के बाद देखा तो उनकी हालत पस्त थी,मैने सोचा कि उन्हे कंधो पर लाद कर ही नीचे ले जाना पडेगा,अक्समात एक चाय की दुकान दिखी,सोचा कि चलो चाय पी लेते है,चाय वाले ने उसी लम्बे नीबू को काट कर चाय बनायी और हम लोगों को दे दी,हम तीनो ने चाय पी,उठकर चला तो लगा जैसे मैने चढाई की ही नही है,बुआ-नानी भी आराम से चलने लगीं,जब मैने पूंछा कि थकावट कहां गयी तो वे बोलीं कि मैया रानी के दर्शन के बाद गायब हो गयी।

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  3. अच्छा कॉपी पेस्ट किया है निखिल अल्केमी ब्लॉग से।

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  4. जय माता दी

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